Tuesday, April 5, 2011
जश्न जीत का
Monday, December 21, 2009
कार्तिक तूने क्या किया!
-अभिषेक सत्य व्रतम्
ये देश क्रिकेट के उन प्रेमियों का है जो क्रिकेट को सिर्फ एक खेल की तरह नहीं बल्कि जंग के नजरिए से देखते हैं और उस जंग में सचिन तेंदुलकर शामिल होतें हैं महाभारत के भगवान श्रीकृष्ण की तरह। और भगवान को दुखी देखकर जैसे भक्त नाराज होते हैं वैसे ही अपने देश में सचिन को दुखी होते देखकर क्रिकेट प्रेमियों का दिल बैठ जाता है। तभी तो तब कार्तिक ने ललचाती गेंद पर बेहतरीन टाइमिंग के जरिए गेंद को सीमारेखा के बाहर पहुंचा तो क्रिकेट प्रेमियों ने माथा पकड़ लिया। अबे रोक लिया होता...''छक्का मारने की क्या जरूरत थी...स्साले बड़ा बैट्समैन बनने चला है.'' शॉट की तारीफ करने की बजाए दिनेश कार्तिक को एसे विशेषणों से नवजा दिया गया। सचिन के चेहरे से साफ था कि शतक के दहलीज तक पहुंचकर वापस लौट आना कितने दुख की बात होती है। तभी तो जीत के बाद न तो जीत की खुशी थी। उत्साह गायब था, सचिन ने कार्तिक को गले तक नहीं लगाया। दूर से ही हाख मिलाकर महज औपचारिकताओं को पूरा कर लिया। सभी दुखी थे कि काश कार्तिक का बल्ला न चला होता तो सचिन की झोली में एक और शानदार सैकड़ा दर्ज हो जाता। सचिन एक महान प्लेयर हैं और उनकी महानता को बयान करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि हम उनकी तारीफ में कोई विशेषण न लिखें। उन्हें भी दुख तो होगा सैकड़ा से 4 रन दूर रह जाने का लेकिन निश्चित तौर पर इस बात की खुशी ज्यादा होगी कि देश जीत गया। सचिन को शायद इन 4 रनों से उतना फायदा नहीं होगा जितना कि टीम में जगह बनाने की कोशिश में लगे दिनेश कार्तिक को उनकी तेज तर्रार पारी से होगा। हालांकि कार्तिक ने जानबूझकर सचिन का जायका खराब करने की कोशिश नहीं की, लेकिन बॉल ही एसी थी कोई भी लालच खा जाए। इसलिए बेहतर यही होगा कि क्रिकेट को एक टीम गेम के तौर पर देखना हम शुरू कर दें। हां एक बात ये है कि अगर सचिन कोई और सेंचुरी नहीं बना पाते हैं तो दिनेश कार्तिक को याद करने वालों की संख्या और बढ़ जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे कि 1998 के इंडिपेंडेंस कप के फाइनल में चौका मारकर भारत की झोली में ट्रॉफी डालने के लिए रिशिकेष कानितकर को याद करते हैं। फर्क बस यही होगा कि दिनेश कार्तिक को यादकर के लोगों को अफसोस होगा। आखिर 'भगवान' को नाराज करने वाले को लोग कैसे माफ कर सकते हैं!
Monday, November 10, 2008
दादा!! हम तुम्हे यूँ भुला न पाएंगे....
सौरव ने भले ही कह दिया की एक दिन सबको छोड़ना होता है, लेकिन उनका प्रदर्शन इस बात का अहसास सबको दिलाता रहेगा की वस्तव में सौरव ने फ़ैसला तहे दिल से नहीं किया. ये एक ऐसा मजबूरी भरा फ़ैसला था जिसे यथार्थ का जामा पहनाया गया. सौरव वास्तव में थके नहीं थे, बूढे भी नहीं हुए थे, उन्हें थका दिया गया. उन्हें इस कठोर फैसले को अपनाने के लिए मजबूर कर दिया गया. आख़िर कब तक एक लड़ाका बैट से बोलने के बावजूद भी इतनी आलोचनाओं का सामना कर पाता? ऐसा नहीं है की ख़ुद सौरव ने भी इस सच को स्वीकार कर लिया था की उनका बैट खामोश हो गया, लेकिन सौरव ने भारतीय क्रिकेट के उस सच को स्वीकार कर लिया जिसका कोई आधार नहीं है, कोई पैमाना नही है, जिस सच को भारतीय क्रिकेट के आका ही सच करार देते हैं और बाकी दुनिया बस उसे सच मानने के सिवाय कुछ कर नहीं पाती. एक ऐसा सच जिसके लिए ना किसी सुबूत की ज़रूरत है न किसी गवाह की. सौरव ने उस सच के सामने आखिरकार हथियार डाल ही दिया. उनका बल्ला तो लगातार गरज रहा था. पूरे क्रिकेट जगत ने उनके बैट के स्वीट स्पॉट से छलके हर एक शोट को सुना लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्रिकेट की बागडोर सँभालने वाले आराजक निकले. उन्होंने सौरव को बाहर करने की ठान ली थी. आखिरकार क्रिकेट प्रेमियों से लेकर समीक्षकों तक की लगातार वाहवाही लूट रहे सौरभ को वन डे टीम से बाहर कर ही दिया गया. दो साल पहले जब सौरव को टीम में शामिल नहीं किया गया था तो सौरव ने हार नहीं मानी थी लेकिन अब की सौरव मान गए. वो समझ गए की अब इस रात की सुबह नहीं है. क्यूँकी जब किसी खिलाड़ी के प्रदर्शन को ही नकार दिया जाए तो उसके पास रास्ता ही क्या बचता है? सौरव ने कड़वे झूठ को मीठा सच समझ के निगल लिया और क्रिकेट को कह दिया अलविदा....
सौरव गांगुली भले ही अब क्रिकेट के मैदान में न नज़र आए, हो सकता की वक्त के तकाजे में हम उन्हें भूल जायें. लेकिन ये आँखे हमेशा ढूँढती रहेंगी ऑफ़ साइड में लगाये गए उनके सैकड़ों मखमली शॉट्स, एक ऐसे खिलाडी को जो जीत के नशे में खो जाने को हमेशा तैयार रहा, एक ऐसे इंसान को जिसने अपने भरोसे के दम पर कई ऐसे हीरों को तराशा जो आज भी अपनी चमक बिखेर रहे हैं.
Tuesday, July 29, 2008
एक आवाज़ ही तो दब गयी..
वायस ऑफ़ इंडिया 2007 के विजेता इश्मीत सिंह की स्वीमिंग पूल में डूबकर मौत।
यही सब कुछ चल रहा था बाकि न्यूज़ चैनल्स पर, ज्योंहि मैंने इस ख़बर को देखा मानो कुछ जम सा गया. मुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था की क्या ये वही इश्मीत है या कोई और, यकीन नहीं हो पा रहा था की ये वही इश्मीत है जिसकी आवाज़ टीवी चैनलों पर गूंजा करती थी. मुझे सचमुच कुछ नहीं समझ में आ रहा था. मैं कुछ पलों का लिए बिल्कुल सुन्न हो गया. साँस लेने में तकलीफ महसूस होने लगी, मैंने कुछ लम्बी साँसे खीची. इसके बाद कुछ ठीक लगा. सभी चैनलों पर ये ख़बर गूँज रही थी. मैंने सोचा अपने चैनल में भी चलना चाहिए, लेकिन एक शंका थी की यार अपना चैनल तो बिज़नस चैनल है ये ख़बर हमारे किस काम की. लेकिन मुझसे रहा नहीं गया, थोड़ी देर बाद मैंने अपने बॉस से जाकर पूछा " सर, इश्मीत वाली ख़बर फ्लैश कर दूँ?" सर को देखकर ऐसा लगा की चाहते तो वो भी हैं लेकिन कहीं कुछ अटक सा जा रहा है. अंततः सर ने कहा," फ्लैश नहीं, टिकर में डाल दो" मैंने सोचा चलो पट्टी में ही सही इश्मीत को जगह तो मिल जायेगी अपने चैनल पर. मैं आकर अभी टाइप कर ही रहा था की पीछे से आवाज़ आयी, " अभिषेक, रहने दो"
शायद किसी ने सोचा होगा की इसमे किसीके मुनाफे और घाटे से जुडी कोई चीज तो है नहीं. सही बात है किसीका क्या गया. गया तो सिर्फ़ इश्मीत. सेंसेक्स ऊपर नीचे होता तो कोई बात होती, यहाँ तो एक गायक मरा था जिसके स्वर ऊपर नीचे होकर लाखों लोगों के दिलों के तार को झंकृत कर देते थे. थोड़ी सी संवेदना ही तो पिघली थी. एक साँस ही तो घुट गयी होगी. एक आवाज़ ही तो दब गयी..
Monday, July 28, 2008
बारिश का एहसास घुटने से ऊपर तक
Saturday, July 12, 2008
A, B और C ग्रेड क्रिकेट
ट्वेंटी -ट्वेंटी में मज़ा, भरपूर पैसा के बावजूद क्रिकेट खिलाड़ियों ने तो अभी तक इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है. यहीं नहीं कंगारू टीम के कप्तान रिक्की पोंटिंग ने तो कई बार अपनी भड़ास ट्वेंटी-ट्वेंटी पर निकली है. सचिन तेंदुलकर ने भले ही आईपीएल में शिरकत करने के लिए भरी भरकम पैसा लिया हो लेकिन बात जब क्रिकेट के किसी एक संस्करण को चुनने की आती है तो वो हमेशा टेस्ट क्रिकेट के लिए हामी भरते है. अगर भारत के पिछले कुछ मैचों को देखा जाए तो उससे यही लगता है कि सचिन ने तो अब ट्वेंटी-ट्वेंटी के अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में न खेलने का फ़ैसला लगभग ले ही लिया है.
जहाँ तक ओवेर्स को कम करने की बात है तो उससे मुझे नहीं लगता की ऐसा करके भी ICC दर्शकों की इच्छाओं की पूर्ति करने में कामयाब हो पायेगी. बात वहीँ की वहीँ रह जाएगी चाहे मैच चालीस ओवेर्स का हो या पचास ओवेर्स का क्यूंकि खासतौर से जिन लोगों को क्रिकेट के इस दनादन स्वरुप (20-20) ने दीवाना बनाया है, उन्हें न तो क्रिकेट की बुनियादी समझ है न ही उससे कोई सरोकार है. उनको मतलब है तो बस लगने वाले चौकों और छक्कों से. जाहिर सी बात है ये चौके छक्के किसी को भी अपनी रोमांच की गिरफ्त में लेने के लिए काफी हैं. कुछ लोगों की दलील ये है की जब लोग देखना ही नहीं चाहते तो आख़िर उन्हें दिन भर क्यूँ दिखाया जाय. ये बात कुछ हद तक जायज हो सकता है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है की किसी व्यक्ति या समुदाय की पसंद नापसंद की खातिर किसी खेल के बुनियादी ढांचे में इतना बड़ा बदलाव बदलाव करना कहाँ तक जायज है? अगर वाकई लोगों के पसंद और नापसंद का इतना ही ख्याल रखा जाता है तो मेरे समझ से नब्बे फीसदी से भी अधिक लोग इस बात के लिए तैयार हो जायेंगे की टेस्ट क्रिकेट को बंद कर दिया जाय. क्योंकि एकदिवसीय क्रिकेट की दशा तो फ़िर भी ठीक है, लेकिन टेस्ट मैच के लिए दर्शक जुटाने में आयोजकों को पसीने छूट जाते हैं. लेकिन 1878 से चल रहे इस संस्करण के कायदे-कानून को लेकर किसी ने अब तक बड़ी मुहीम छेड़ने की कवायद नहीं की. दिन की संख्या अब भी पाँच है. इसको कम करने के नाम पर कभी-कभार हल्की खुसुर-फुसुर के अलावा कुछ खास नहीं किया गया. आख़िर क्यूँ? वजह बिल्कुल साफ़ है की लोगों ने क्रिकेट के इस स्वरुप को स्वीकार कर लिया है. इसलिए इसमे लोगों को बदलाव की न तो गुंजाईश लगती है न ही कोई बहुत बड़ी ज़रूरत महसूस होती है.
एक और बात बहुत ही ज़रूरी है की किसी भी खेल की रूपरेखा उस खेल से जुड़े खिलाड़ियों को करना चाहिए या इसका फ़ैसला उन लोगों पर छोड़ देना चाहिए जिनके लिए खेल खेल नहीं बल्कि मनोरंजन का एक जरिया भर है. या इसका फ़ैसला सिर्फ़ बाज़ार पर छोड़ देना चाहिए जो हर चीज को अपनी बनाई पटरी पर चलाना चाहता है चाहे वो खेल हो, सोच हो, या संवेदनाएं. अगर ख़ुद खिलाडी सामने आकर कुछ आवाज़ उठाते तो बात कुछ और थी. उसके कुछ मायने भी होते. लेकिन सिर्फ़ देख्नने वालों के लिए खेल को सिर्फ़ मनोरंजन की चासनी में डुबोकर परोसना कहाँ तक तर्कसंगत है. और हां अगर मान लिया जाय की इस बदलाव से वन डे क्रिकेट के वजूद पर कोई संकट नहीं आएगा तो इसकी गारंटी क्या है? क्या ये सम्भव नहीं है की अगले कुछ दिनों/ महीनों में लोगों को इसका स्वाद फ़िर से फीका लगने लगेगा. फ़िर क्या होगा? क्या फ़िर ICC ओवेरों में कटौती करेगा? सवाल कुछ पेचीदा है, लेकिन इस पर मंथन की भी ज़रूरत है. क्यूंकि तब फ़िर इस बात पर सोचने की ज़रूरत होगी की खेल को खेल ही रहने दिया जाय या फ़िर इसे बाज़ार के मजबूत खूंटे से बाँध दिया जाय. बाज़ार तब तक और तगड़ा हो जाएगा और ये भी सम्भव है कि उसे काबू में करने के लिए क्रिकेट की ही बलि चढाना पड़े. इस लिए आज ज़रूरत इस बात की है पहले से ही बाज़ार के घुसपैठ की सीमारेखा तय कर दी जाय. या फ़िर क्रिकेट में भी फिल्मों की तरह ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर दिया जाय A, B और C ग्रेड क्रिकेट. वैसे भी खिलाड़ियों को पहले से ही ग्रेडिंग की आदत पड़ ही चुकी है.
Monday, June 30, 2008
अपने धोनी भइया थक गए हैं
इससे तो यही लगेगा न आपको अभी मजा नहीं आ रहा है, ज़ाहिर सी बात है सिर्फ़ देश के लिए खेलकर ४४ दिन में ६ करोड़ रूपए तो मिलेंगे नहीं, न ही उतना मजा मिलेगा , थोड़ी बोरियत तो होगी ही।