Tuesday, April 5, 2011

जश्न जीत का

जैसे ही धोनी के बल्ले से हवाई शॉट निकला और आसमान को चूम कर, हवाओं का आलिंगन कर गेंद जाकर स्टैंड्स में गिरी जैसे कुछ पल के लिए सब कुछ थम सा गया। सच में, कुछ पलों के लिए तो यकीन हो पाना मुश्किल था कि हम 28 साल बाद फिर से वनडे क्रिकेट में वर्ल्ड चैंपियन बन गए हैं। अद्भुत सी अनुभूति थी, बिल्कुल अलग। कैसा ये ठीक-ठीक बता पाना नामुमकिन है। आनंद की एक ऐसी अनुभूति जिसके बारे में खुली आंखों से हम कभी कभार कल्पना किया करते थे। 8 साल पहले हम उस खुशी की दहलीज पर जाकर ठिठक गए थे। वर्ल्डकप जीतने के बेहद करीब आने के बाद भी हमारे हिस्से में केवल गम आया था और करोड़ो भारतीयों की उम्मीदों पर पानी फिर गया था। लेकिन इस बार अलग टीम इंडिया थी। हालांकि नजारा वही था-फाइनल का खौफ। ऊपर से उम्मीदों का बोझ भी बढ़ गया था। हम एक सौ इक्कीस करोड़ हो गए थे। जीत से कम कुछ भी मंजूर नहीं था। और इन उम्मीदों पर भारत के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी बिल्कुल खरे उतरे। छक्का मारकर टीम इंडिया को दिला दिया वर्ल्डकप, जिसके लिए देश 28 साल से तरस रहा था। कुछ पलों के लिए तो समझ आया कि क्या करूं। मैं, विश्वमोहन और उसका दोस्त राजीव हम तीनों खुशी के मारे उछल गए थे। कुछ सेकेंड तक तीनों हम गले मिलते रहे। चीखते रहे। चिल्लाते रहे। जीत का जश्न मनाते रहे। ड्रम को बेतहाशा जोर जोर से पीटते रहे। दिल में खूशी का तूफान जैसे बाहर आने को आतुर था। लेकिन चूकि कर्मभूमि यानि ऑफिस में था लिहाजा काम तो करना ही था। हम तुरंत काम खत्म कर सड़क की भीड़ में खो जाना चाहते थे। ड्रम को जितना हो सका हम तीनों ने पीटा। फट जाए इसकी भी परवाह नहीं। आखिर हम अब चैंपियन हैं और इसका तो अधिकार है ही खुशी में झूम रहे और पागल हो रहे टीम इंडिया के प्रशंसकों का।
ऑफिस के काम के घंटे के मुताबिक सिर्फ मुझे ही ऑफिस में रुकना था। 11 बजे मैच का अपडेट करके ही मुझे निकलना था। लेकिन इस बात का अफसोस नहीं था मुझे। सोचा, आखिर कहीं भी रहूंगा देखना तो भारत श्रीलंका के बीच मैच ही है। बहरहाल, मेरे कहने पर विश्वमोहन भी ऑफिस में रुक गया और उसने अपने एक दोस्त (राजीव) को भी बुला लिया था। इसलिए मैच देखने का मजा दोगुना हो गया था। जैसे-जैसे हम मंजिल की तरफ बढ़ रहे थे धड़कने बढ़ती जा रही थीं। पता नहीं इतनी खुशी क्या थी। आखिर वो क्या चीज हमें मिलने वाली थी जिसे लेकर खुशी तेज़़ हिलोरें मार रही थी। मन आवारा भीड़ में सड़कों पर हजारों लोगों के बीच दौड़ने को ब्याकुल हो रहा था। हजारों के साथ हम तीनों सिर्फ एक हो जाना चाहते थे। ऑफिस के कुछ और कोनों में लोग टीवी के साथ चिपके हुए थे और हर एक शॉट पर झूम रहे थे। श्रीलंका की पारी के दौरान मैनें रवि को भी फोन किया था। वो कल्याण में था। आने का मतलब, कम से कम डेढ़ घंटे के लिए मैच के रोमांच से दूर हो जाना। लिहाजा उसने मैच खत्म कर ही आने का फैसला लिया। लेकिन हमारा जश्न जारी था। विश्वमोहन ने किसी की कमी महसूस नहीं होने दी। सुबह आठ बजे से ऑफिस में होने के बावजूद वो बिल्कुल तरोताज़ा था। थकान तो उसके चेहरे पर थी ही नहीं। जोश और जुनून इस कदर की मेकअप रूम में जाकर दोनों गालों पर तिरंगा भी पेंट करवाकर आ गया। मुझे पता नहीं क्यों इस बात का पूरा यकीन था कि मैच तो हम ही जीतेंगे। श्रीलंका ने जब 275 का स्कोर दिया तो बहुत लोगों की सांस अटक गई। जीत या हार क्या मिलेगी हमें किसी को कुछ नहीं पता था। लेकिन मुझे बिल्कुल नहीं लगा कि स्कोरबोर्ड पर टंगे ये रन किसी भी लिहाज से ज्यादा थे। फिक्र थी तो सिर्फ इस बात की कि श्रीलंकाई टीम में शामिल किए गए नए खिलाड़ी कहीं चल न जाए। लेग स्पिनर सूरज रांडीव से मुझे डर लगा रहा था। न दिलशान के दम का खौफ था और न ही मुरली के मायाजाल में फंसने की उलझन। मैनें तो यहां तक कह दिया कि आज मैच 2 खिलाड़ी ही जिताएंगे- गौतम गंभीर और धोनी। था तो तुक्का ही, लेकिन ये भरोसा कहां से आया नहीं पता। इसलिए जब मलिंगा ने ओवर की दूसरी बॉल पर ही सेहवाग को विकेट के सामने पकड़ लिया तो भी मुझे डर नहीं लगा। लेकिन दो ओवर बाद जब मलिंगा ने सचिन को विकेट के पीछे कैच कराया तो सब कुछ सुन्न हो गया। देश से ज्यादा सचिन के लिए दु:ख हुआ। थोड़ा भरोसा डिगा लेकिन जीत का हौसला जमीन पर नहीं आया।
मैच देखने के दौरान कई सीनियर्स का भी मुझे फोन आया। सबकी जबां पर एक ही सवाल- अब क्या होगा और क्या भारत मैच जीतेगा? मैं बिल्कुल आराम से कहता- जीतने में कोई शक नहीं है, धोनी और गंभीर हैं ना। और उसके बाद जो कुछ हुआ वो इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। हमने वो देखा जो किसी की भी जिंदगी में कभी-कभार होता है। कई सारे खयाल दिल में तैर रहे थे। चेहरे पर खुशी थी, आश्चर्य था, उमंग था और आंखों में जीत का नशा। पूरा देश पागल हुआ जा रहा था। स्टेडियम में लोगों को अपनी आंखों पर यकीन नहीं पो रहा था। ऑफिस में सभी सिर्फ यही चिल्ला रहे थे। इंडिया... इंडिया और इंडिया..। बचपन में कई बार भारत को इंडिया कहे जाने पर अच्छा नहीं लगता था। लगता था जैसे वो लोग हमसे अलग हैं, देश से दूर हैं जो भारत को इंडिया कहते हैं। संविधान की शुरुआती लाइनें भी गलत सी लगती थीं कि- India that is Bharat.. । लेकिन आज कोई शिकायत नहीं थी। लोगों के उत्साह वाले इंडिया में मेरे बचपन के भारत वाली खुशी से कुछ भी अलग नहीं था। सब कुछ धुल गया था, शब्द और अल्फाज़ जीत और उमंग के आगे बौने लग रहे थे। लग रहा था जज्बातों की कोई जबान नहीं होती है। वो तो इंसान होता है जिसे मजबूरी में कुछ शब्द चुनने होते हैं। खैर, काम खत्म हो गया। मैच अपडेट की दो अच्छी सी रीड मैने पूल में लिख दी थी। आखिरी मेल मैनें डाला। फिर हमने फैसला किया कि वानखेड़े चलते हैं और वहां के जोश के सागर में कूद जाते हैं।
जैसे ही हम सड़क पर आए, जीत हर तरफ नजर आने लगी। मोटरसाइकिलों पर, फुटपाथ पर, सर्रर्र से बेतरतीब गुजरती लंबी लंबी लग्जरी गाड़ियों में और सबसे ज्यादा आसमान में। नारे लगाने वालों की टोलियां, भारतीय टीम के कपड़े पहने लोग हर जगह दिख रहे थे। सभी के चेहरे चमक रहे थे। एक जनाब तो मोटरसाइकिल पर 6 बच्चों को बिठाकर जीत का जश्न मना रहे थे। अद्भुत नजारा देखकर समझ में आ गया कि क्रिकेट के भगवान सचिन ने अवतार आखिर इसी मुंबई में क्यों लिया। हमें भूख भी लग रही थी इसलिए रास्ते की एक दुकान से बिस्कुट के कुछ पैकेट हमने ले लिए। सड़कों पर लोग नाचते, गाते, चीखते-चिल्लाते, जश्न मनाते चले जा रहे थे। भीड़ में ज्यादातर वोग वो थे जिनकी जिंदगी में चैंपियन बनने का कारनामा पहली बार हुआ था। हम भी उन्हीं लोगों में से थे। जिनके पैदा होने से पहले की कपिलदेव ने कप उठाया था और हमने सिर्फ कहानियां पढ़ी और सुनी थी। इस बीच रवि का फोन आया और जब मैनें बताया कि हम वानखेड़े जा रहे हैं तो वो भी खुद को रोक नहीं सका। हम लोअर परेल स्टेशन पहुंच गए। पागलपन इस कदर हावी था कि हमने लोकल की टिकट भी नहीं ली। ट्रेन रुकी और हम फर्स्ट क्लास में जाकर बैठ गए। टिकट चेकर का कोई डर नहीं और न ही इस बात का कोई इल्म कि बिना टिकट यात्रा करना जुर्म है। फर्स्ट क्लास के डिब्बे में सिर्फ हम तीन ही थे। हम चिल्ला रहे थे, चीख रहे थे, अनजानों को भी हाथ हिलाकर जीत की बधाइयां दे रहे थे। आखिर पूरा देश जीता था। धर्म, नाम, इलाका, बोली कुछ भी मायने ही कहा रखती थी। ऑफिस के सीनियर्स विपिन भट्ट और सौरभ गुप्ता का भी फोन आया था। जीत के जज्बात सभी पर हावी थे। हर कामयाबी से बड़ी कामयाबी थी ये। इतनी जोरों से दिल खुशी में कब धड़का था याद नहीं आ रहा था। ट्रेन से बाहर का नजारा देखने लायक था।
हम मरीन लाइंस पर उतर गए। पार्किंग में हजारों कारें और मीडिया वालों का जबरदस्त हुजूम। ऐसा लग रहा था जैसे आज सारे रास्ते वानखेड़े होकर जाएंगे। कम से कम 25-30 ओबी वैन वहीं डेरा डाले हुए थीं। सड़कों पर जलसे का माहौल। लड़के, लड़किया, बच्चे, बूढ़े सभी क्रिकेट के रंग में रंगे हुए थे। कपड़े नए-पुराने भले ही थे लेकिन उस दिन सभी अमीर थे। सभी के हिस्से में उतनी ही खुशी आई थी। न कोई छोटा था न कोई बड़ा। सड़क पर, फ्लाई ओवर पर हजारों की भीड़ इकट्ठा थी। न जाने कितने ही फिरंग भी इंडिया, इंडिया चिल्लाए जा रहे थे। कई सारे सेलेब्रिटी बिल्कुल हमारे बगल से गुजरे। सबने देशभक्ति बराबर-बराबर बांट ली थी इसलिए अलग नहीं लग रहे थे। हम धीरे-धीरे वानखेड़े की तरफ बढ़ रहे थे। मन में खुशी का सैलाब बढ़ता ही जा रहा था। सुरक्षा के लिए सड़कों पर हजारों की संख्या में जवान खड़े थे। लेकिन वो भी किसी को रोक-टोक नहीं रहे थे। आज नशा देश की जीत का था। लोग गाड़ियों की छतों पर सवार थे। ताज्जुब तो लड़कियों को कारों की छतों पर बैठे देखकर हुआ। फिसलने का पूरा चांस था लेकिन जोश में सब कुछ भूल गया था। लोगों के हाथों में वर्ल्ड कप की तरह-तरह की अनुकृति थी। हर तरह की गाड़ियां सड़कों पर बेतरतीब भागी जा रही थीं और गाड़ियों में बैठे लोग नारे लगा रहे थे। न कोई ट्रैफिक पुलिस थी और न ही कोई ट्रैफिक नियम। हम बीच-बीच में रुककर फोटो लेने नहीं भूलते। हमने फैसला किया कि हम स्टेडियम के अंदर जाएंगे और जीत की तरंगों को महसूस करके आएंगे। जीत के पल तो नहीं ठहरे होंगे लेकिन उन हवाओं की खुशबू वहां मौजूद होगी।
सिक्योरिटी के बावजूद हम स्टेडियम के अंदर जाने में कामयाब हो गए। कुछ पुलिस वालों ने रोकने की कोशिश की तो हमने अपना प्रेस कार्ड दिखा दिया। अब हम स्टेडियम के अंदर थे। उसी वानखेड़े स्टेडियम में जहां कुछ देर पहले ही भारत ने श्रीलंका फतह किया था। उत्साह और उमंग के अवशेष वहां बिखरे पड़े थे। तरह-तरह के रंगीन बैनर और पोस्टर, झंडे कुर्सियों पर पड़े हुए थे। कुछ खिलाड़ी वहां टहल भी रहे थे। हालांकि पूरा स्टेडियम खाली हो गया था। मीडिया वालों और पुलिस और ग्राउंड स्टाफ के अलावा वहां कोई नहीं था। सारी भीड़ थी समंदर से सटे मरीन ड्राइव पर। बगल में ही खिलाड़यों का ड्रेसिंग रूम था। हमने कई खिलाड़यों को जश्न मनाते देखा। युसूफ पठान, विराट कोहली, सचिन तेंदुलकर, हरभजन सिंह को एक दूसरे से गले मिलते और जीत की बधाइयां देते हुए देखा। सभी के चेहरे पर सुकून था। सब कुछ हमारी आंखों में कैद हो रहा था। बाहर दर्शकों का रेला वानखेड़े के बाहर जमा हो रहा था। लोग इसी इंतजार थे कि कब उनके विश्व विजेता बाहर होटल जाने के लिए स्टेडियम से बाहर निकलें और वो उनका दीदार करें। सबकी नजरें स्टेडियम के मुख्य द्वार पर टिकी हुई थीं। हम स्टेडियम के अंदर ही कुर्सियों पर आराम फरमा रहे थे। कुछ श्रीलंकाई खिलाड़ी भी दिखे। जाहिर तौर पर हार जाने का गम उन्हें साल तो रहा ही होगा लेकिन किसी के चेहरे पर वो मायूसी नहीं दिखी। हो सकता है सबसे दिमाग में क्रिकेट की दुनिया का बाजारू महाकुंभ IPL चल रहा हो।
एक घंटे बिताने के बाद अब हमें भी बाहर का नजारा देखने की कौतूहल हो रही थी इसलिए हमने बाहर निकलने का फैसला लिया। इस बीच रवि भी छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पहुंच रहा था और वो फिर मरीन ड्राइव भी आने वाला था। हम बाहर निकल गए। गेट पर जबरदस्त भीड़ थी। तमाम पत्रकार, अधिकारी, क्रिकेट फैन्स का जमावड़ा लगा था। सचमुच जिंदगी में कभी भी ऐसा शानदार नजारा नहीं देखा था मैने। शहर की आतिशबाजी बदस्तूर जारी थी। लग रहा था जैसे इस रात की अब सुबह नहीं है। 2 बज चुके थे लेकिन इसका एहसास किसी को भी नहीं हुआ। खैर, हम धीरे-धीरे हर एक पल के गवाह बनते हुए चर्चगेट स्टेशन पहुंचे। जश्न का माहौल, लोगों का नाच-गाना उसी तरह चल रहा था। उत्साह में कमी नहीं आई थी। चर्चगेट पर रवि मिला। भूख भी जोरों की लगी थी। रवि बाहर से ब्रेड ऑमलेट और समोसे लेकर आया था। उसे खाकर, पानी पीकर हम फिर से मरीन ड्राइव लौट आए। कम से कम 2 घंटे हमें और गुजारने थे। और माहौल इतना शानदार था कि ये वक्त काटना बेहद आसान था। लोगों को दूर से निहारने में भी दिल बल्लियों उछल रहा था। हम करीब डेढ़ घंटे तक मरीन ड्राइव पर बैठे रहे। मैं पत्थरों पर लेट गया था और मुझे नीद भी आ गई थी। रह रह के एक सिहरन अक्सर पूरे शरीर में दौड़ जा रही थी कि अरे, क्या हम वाकई में वर्ल्ड चैंपियन बन गए हैं। लोग तब तक वहां बैठे रहे जब तक कि पुलिस वाले उन्हें भगाने नहीं लगे।
आखिर हम उस भीड़ को वहीं छोड़, जीत के उत्साह को मन और आंखों में समेटकर चर्च गेट आ गए। पहली लोकल पकड़नी थी हमें गोरेगांव आने के लिए। आधे घंटे के इंतजार के बाद हम ट्रेन में बैठ गए। पता नहीं चर्चगेट स्टेशन पर पहली लोकल पकड़ने के लिए इतनी भारी तादाद में लोग इससे पहले कब जमा हुए होंगे। हर जगह सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट था, धोनी था, युवराज था और मास्टर ब्लास्टर सचिन था। ट्रेन तेज रफ्तार में भागे जा रही थी कई स्टेशनों पर कई दिनों तक चलने वाली चर्चा को छोड़कर। कई बार मैं पशोपेश में पड़ जा रहा था कि ये उत्सव किस लिए है- खेल की जीत हुई है, देश की जीत हुई है या क्रिकेट के नशे में चूर हम भारतीयों की या फिर एक बहुत बड़े बाजार की जिसे फलने-फूलने से रोक पाना अब किसी के लिए भी नामुमकिन है? अब भी यकीन कर पाना मुश्किल है कि धोनी ने क्या जबरदस्त कारनामा कर दिखाया है।

अभिषेक सत्य व्रतम्
3 अप्रैल 2011