Tuesday, April 5, 2011

जश्न जीत का

जैसे ही धोनी के बल्ले से हवाई शॉट निकला और आसमान को चूम कर, हवाओं का आलिंगन कर गेंद जाकर स्टैंड्स में गिरी जैसे कुछ पल के लिए सब कुछ थम सा गया। सच में, कुछ पलों के लिए तो यकीन हो पाना मुश्किल था कि हम 28 साल बाद फिर से वनडे क्रिकेट में वर्ल्ड चैंपियन बन गए हैं। अद्भुत सी अनुभूति थी, बिल्कुल अलग। कैसा ये ठीक-ठीक बता पाना नामुमकिन है। आनंद की एक ऐसी अनुभूति जिसके बारे में खुली आंखों से हम कभी कभार कल्पना किया करते थे। 8 साल पहले हम उस खुशी की दहलीज पर जाकर ठिठक गए थे। वर्ल्डकप जीतने के बेहद करीब आने के बाद भी हमारे हिस्से में केवल गम आया था और करोड़ो भारतीयों की उम्मीदों पर पानी फिर गया था। लेकिन इस बार अलग टीम इंडिया थी। हालांकि नजारा वही था-फाइनल का खौफ। ऊपर से उम्मीदों का बोझ भी बढ़ गया था। हम एक सौ इक्कीस करोड़ हो गए थे। जीत से कम कुछ भी मंजूर नहीं था। और इन उम्मीदों पर भारत के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी बिल्कुल खरे उतरे। छक्का मारकर टीम इंडिया को दिला दिया वर्ल्डकप, जिसके लिए देश 28 साल से तरस रहा था। कुछ पलों के लिए तो समझ आया कि क्या करूं। मैं, विश्वमोहन और उसका दोस्त राजीव हम तीनों खुशी के मारे उछल गए थे। कुछ सेकेंड तक तीनों हम गले मिलते रहे। चीखते रहे। चिल्लाते रहे। जीत का जश्न मनाते रहे। ड्रम को बेतहाशा जोर जोर से पीटते रहे। दिल में खूशी का तूफान जैसे बाहर आने को आतुर था। लेकिन चूकि कर्मभूमि यानि ऑफिस में था लिहाजा काम तो करना ही था। हम तुरंत काम खत्म कर सड़क की भीड़ में खो जाना चाहते थे। ड्रम को जितना हो सका हम तीनों ने पीटा। फट जाए इसकी भी परवाह नहीं। आखिर हम अब चैंपियन हैं और इसका तो अधिकार है ही खुशी में झूम रहे और पागल हो रहे टीम इंडिया के प्रशंसकों का।
ऑफिस के काम के घंटे के मुताबिक सिर्फ मुझे ही ऑफिस में रुकना था। 11 बजे मैच का अपडेट करके ही मुझे निकलना था। लेकिन इस बात का अफसोस नहीं था मुझे। सोचा, आखिर कहीं भी रहूंगा देखना तो भारत श्रीलंका के बीच मैच ही है। बहरहाल, मेरे कहने पर विश्वमोहन भी ऑफिस में रुक गया और उसने अपने एक दोस्त (राजीव) को भी बुला लिया था। इसलिए मैच देखने का मजा दोगुना हो गया था। जैसे-जैसे हम मंजिल की तरफ बढ़ रहे थे धड़कने बढ़ती जा रही थीं। पता नहीं इतनी खुशी क्या थी। आखिर वो क्या चीज हमें मिलने वाली थी जिसे लेकर खुशी तेज़़ हिलोरें मार रही थी। मन आवारा भीड़ में सड़कों पर हजारों लोगों के बीच दौड़ने को ब्याकुल हो रहा था। हजारों के साथ हम तीनों सिर्फ एक हो जाना चाहते थे। ऑफिस के कुछ और कोनों में लोग टीवी के साथ चिपके हुए थे और हर एक शॉट पर झूम रहे थे। श्रीलंका की पारी के दौरान मैनें रवि को भी फोन किया था। वो कल्याण में था। आने का मतलब, कम से कम डेढ़ घंटे के लिए मैच के रोमांच से दूर हो जाना। लिहाजा उसने मैच खत्म कर ही आने का फैसला लिया। लेकिन हमारा जश्न जारी था। विश्वमोहन ने किसी की कमी महसूस नहीं होने दी। सुबह आठ बजे से ऑफिस में होने के बावजूद वो बिल्कुल तरोताज़ा था। थकान तो उसके चेहरे पर थी ही नहीं। जोश और जुनून इस कदर की मेकअप रूम में जाकर दोनों गालों पर तिरंगा भी पेंट करवाकर आ गया। मुझे पता नहीं क्यों इस बात का पूरा यकीन था कि मैच तो हम ही जीतेंगे। श्रीलंका ने जब 275 का स्कोर दिया तो बहुत लोगों की सांस अटक गई। जीत या हार क्या मिलेगी हमें किसी को कुछ नहीं पता था। लेकिन मुझे बिल्कुल नहीं लगा कि स्कोरबोर्ड पर टंगे ये रन किसी भी लिहाज से ज्यादा थे। फिक्र थी तो सिर्फ इस बात की कि श्रीलंकाई टीम में शामिल किए गए नए खिलाड़ी कहीं चल न जाए। लेग स्पिनर सूरज रांडीव से मुझे डर लगा रहा था। न दिलशान के दम का खौफ था और न ही मुरली के मायाजाल में फंसने की उलझन। मैनें तो यहां तक कह दिया कि आज मैच 2 खिलाड़ी ही जिताएंगे- गौतम गंभीर और धोनी। था तो तुक्का ही, लेकिन ये भरोसा कहां से आया नहीं पता। इसलिए जब मलिंगा ने ओवर की दूसरी बॉल पर ही सेहवाग को विकेट के सामने पकड़ लिया तो भी मुझे डर नहीं लगा। लेकिन दो ओवर बाद जब मलिंगा ने सचिन को विकेट के पीछे कैच कराया तो सब कुछ सुन्न हो गया। देश से ज्यादा सचिन के लिए दु:ख हुआ। थोड़ा भरोसा डिगा लेकिन जीत का हौसला जमीन पर नहीं आया।
मैच देखने के दौरान कई सीनियर्स का भी मुझे फोन आया। सबकी जबां पर एक ही सवाल- अब क्या होगा और क्या भारत मैच जीतेगा? मैं बिल्कुल आराम से कहता- जीतने में कोई शक नहीं है, धोनी और गंभीर हैं ना। और उसके बाद जो कुछ हुआ वो इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। हमने वो देखा जो किसी की भी जिंदगी में कभी-कभार होता है। कई सारे खयाल दिल में तैर रहे थे। चेहरे पर खुशी थी, आश्चर्य था, उमंग था और आंखों में जीत का नशा। पूरा देश पागल हुआ जा रहा था। स्टेडियम में लोगों को अपनी आंखों पर यकीन नहीं पो रहा था। ऑफिस में सभी सिर्फ यही चिल्ला रहे थे। इंडिया... इंडिया और इंडिया..। बचपन में कई बार भारत को इंडिया कहे जाने पर अच्छा नहीं लगता था। लगता था जैसे वो लोग हमसे अलग हैं, देश से दूर हैं जो भारत को इंडिया कहते हैं। संविधान की शुरुआती लाइनें भी गलत सी लगती थीं कि- India that is Bharat.. । लेकिन आज कोई शिकायत नहीं थी। लोगों के उत्साह वाले इंडिया में मेरे बचपन के भारत वाली खुशी से कुछ भी अलग नहीं था। सब कुछ धुल गया था, शब्द और अल्फाज़ जीत और उमंग के आगे बौने लग रहे थे। लग रहा था जज्बातों की कोई जबान नहीं होती है। वो तो इंसान होता है जिसे मजबूरी में कुछ शब्द चुनने होते हैं। खैर, काम खत्म हो गया। मैच अपडेट की दो अच्छी सी रीड मैने पूल में लिख दी थी। आखिरी मेल मैनें डाला। फिर हमने फैसला किया कि वानखेड़े चलते हैं और वहां के जोश के सागर में कूद जाते हैं।
जैसे ही हम सड़क पर आए, जीत हर तरफ नजर आने लगी। मोटरसाइकिलों पर, फुटपाथ पर, सर्रर्र से बेतरतीब गुजरती लंबी लंबी लग्जरी गाड़ियों में और सबसे ज्यादा आसमान में। नारे लगाने वालों की टोलियां, भारतीय टीम के कपड़े पहने लोग हर जगह दिख रहे थे। सभी के चेहरे चमक रहे थे। एक जनाब तो मोटरसाइकिल पर 6 बच्चों को बिठाकर जीत का जश्न मना रहे थे। अद्भुत नजारा देखकर समझ में आ गया कि क्रिकेट के भगवान सचिन ने अवतार आखिर इसी मुंबई में क्यों लिया। हमें भूख भी लग रही थी इसलिए रास्ते की एक दुकान से बिस्कुट के कुछ पैकेट हमने ले लिए। सड़कों पर लोग नाचते, गाते, चीखते-चिल्लाते, जश्न मनाते चले जा रहे थे। भीड़ में ज्यादातर वोग वो थे जिनकी जिंदगी में चैंपियन बनने का कारनामा पहली बार हुआ था। हम भी उन्हीं लोगों में से थे। जिनके पैदा होने से पहले की कपिलदेव ने कप उठाया था और हमने सिर्फ कहानियां पढ़ी और सुनी थी। इस बीच रवि का फोन आया और जब मैनें बताया कि हम वानखेड़े जा रहे हैं तो वो भी खुद को रोक नहीं सका। हम लोअर परेल स्टेशन पहुंच गए। पागलपन इस कदर हावी था कि हमने लोकल की टिकट भी नहीं ली। ट्रेन रुकी और हम फर्स्ट क्लास में जाकर बैठ गए। टिकट चेकर का कोई डर नहीं और न ही इस बात का कोई इल्म कि बिना टिकट यात्रा करना जुर्म है। फर्स्ट क्लास के डिब्बे में सिर्फ हम तीन ही थे। हम चिल्ला रहे थे, चीख रहे थे, अनजानों को भी हाथ हिलाकर जीत की बधाइयां दे रहे थे। आखिर पूरा देश जीता था। धर्म, नाम, इलाका, बोली कुछ भी मायने ही कहा रखती थी। ऑफिस के सीनियर्स विपिन भट्ट और सौरभ गुप्ता का भी फोन आया था। जीत के जज्बात सभी पर हावी थे। हर कामयाबी से बड़ी कामयाबी थी ये। इतनी जोरों से दिल खुशी में कब धड़का था याद नहीं आ रहा था। ट्रेन से बाहर का नजारा देखने लायक था।
हम मरीन लाइंस पर उतर गए। पार्किंग में हजारों कारें और मीडिया वालों का जबरदस्त हुजूम। ऐसा लग रहा था जैसे आज सारे रास्ते वानखेड़े होकर जाएंगे। कम से कम 25-30 ओबी वैन वहीं डेरा डाले हुए थीं। सड़कों पर जलसे का माहौल। लड़के, लड़किया, बच्चे, बूढ़े सभी क्रिकेट के रंग में रंगे हुए थे। कपड़े नए-पुराने भले ही थे लेकिन उस दिन सभी अमीर थे। सभी के हिस्से में उतनी ही खुशी आई थी। न कोई छोटा था न कोई बड़ा। सड़क पर, फ्लाई ओवर पर हजारों की भीड़ इकट्ठा थी। न जाने कितने ही फिरंग भी इंडिया, इंडिया चिल्लाए जा रहे थे। कई सारे सेलेब्रिटी बिल्कुल हमारे बगल से गुजरे। सबने देशभक्ति बराबर-बराबर बांट ली थी इसलिए अलग नहीं लग रहे थे। हम धीरे-धीरे वानखेड़े की तरफ बढ़ रहे थे। मन में खुशी का सैलाब बढ़ता ही जा रहा था। सुरक्षा के लिए सड़कों पर हजारों की संख्या में जवान खड़े थे। लेकिन वो भी किसी को रोक-टोक नहीं रहे थे। आज नशा देश की जीत का था। लोग गाड़ियों की छतों पर सवार थे। ताज्जुब तो लड़कियों को कारों की छतों पर बैठे देखकर हुआ। फिसलने का पूरा चांस था लेकिन जोश में सब कुछ भूल गया था। लोगों के हाथों में वर्ल्ड कप की तरह-तरह की अनुकृति थी। हर तरह की गाड़ियां सड़कों पर बेतरतीब भागी जा रही थीं और गाड़ियों में बैठे लोग नारे लगा रहे थे। न कोई ट्रैफिक पुलिस थी और न ही कोई ट्रैफिक नियम। हम बीच-बीच में रुककर फोटो लेने नहीं भूलते। हमने फैसला किया कि हम स्टेडियम के अंदर जाएंगे और जीत की तरंगों को महसूस करके आएंगे। जीत के पल तो नहीं ठहरे होंगे लेकिन उन हवाओं की खुशबू वहां मौजूद होगी।
सिक्योरिटी के बावजूद हम स्टेडियम के अंदर जाने में कामयाब हो गए। कुछ पुलिस वालों ने रोकने की कोशिश की तो हमने अपना प्रेस कार्ड दिखा दिया। अब हम स्टेडियम के अंदर थे। उसी वानखेड़े स्टेडियम में जहां कुछ देर पहले ही भारत ने श्रीलंका फतह किया था। उत्साह और उमंग के अवशेष वहां बिखरे पड़े थे। तरह-तरह के रंगीन बैनर और पोस्टर, झंडे कुर्सियों पर पड़े हुए थे। कुछ खिलाड़ी वहां टहल भी रहे थे। हालांकि पूरा स्टेडियम खाली हो गया था। मीडिया वालों और पुलिस और ग्राउंड स्टाफ के अलावा वहां कोई नहीं था। सारी भीड़ थी समंदर से सटे मरीन ड्राइव पर। बगल में ही खिलाड़यों का ड्रेसिंग रूम था। हमने कई खिलाड़यों को जश्न मनाते देखा। युसूफ पठान, विराट कोहली, सचिन तेंदुलकर, हरभजन सिंह को एक दूसरे से गले मिलते और जीत की बधाइयां देते हुए देखा। सभी के चेहरे पर सुकून था। सब कुछ हमारी आंखों में कैद हो रहा था। बाहर दर्शकों का रेला वानखेड़े के बाहर जमा हो रहा था। लोग इसी इंतजार थे कि कब उनके विश्व विजेता बाहर होटल जाने के लिए स्टेडियम से बाहर निकलें और वो उनका दीदार करें। सबकी नजरें स्टेडियम के मुख्य द्वार पर टिकी हुई थीं। हम स्टेडियम के अंदर ही कुर्सियों पर आराम फरमा रहे थे। कुछ श्रीलंकाई खिलाड़ी भी दिखे। जाहिर तौर पर हार जाने का गम उन्हें साल तो रहा ही होगा लेकिन किसी के चेहरे पर वो मायूसी नहीं दिखी। हो सकता है सबसे दिमाग में क्रिकेट की दुनिया का बाजारू महाकुंभ IPL चल रहा हो।
एक घंटे बिताने के बाद अब हमें भी बाहर का नजारा देखने की कौतूहल हो रही थी इसलिए हमने बाहर निकलने का फैसला लिया। इस बीच रवि भी छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पहुंच रहा था और वो फिर मरीन ड्राइव भी आने वाला था। हम बाहर निकल गए। गेट पर जबरदस्त भीड़ थी। तमाम पत्रकार, अधिकारी, क्रिकेट फैन्स का जमावड़ा लगा था। सचमुच जिंदगी में कभी भी ऐसा शानदार नजारा नहीं देखा था मैने। शहर की आतिशबाजी बदस्तूर जारी थी। लग रहा था जैसे इस रात की अब सुबह नहीं है। 2 बज चुके थे लेकिन इसका एहसास किसी को भी नहीं हुआ। खैर, हम धीरे-धीरे हर एक पल के गवाह बनते हुए चर्चगेट स्टेशन पहुंचे। जश्न का माहौल, लोगों का नाच-गाना उसी तरह चल रहा था। उत्साह में कमी नहीं आई थी। चर्चगेट पर रवि मिला। भूख भी जोरों की लगी थी। रवि बाहर से ब्रेड ऑमलेट और समोसे लेकर आया था। उसे खाकर, पानी पीकर हम फिर से मरीन ड्राइव लौट आए। कम से कम 2 घंटे हमें और गुजारने थे। और माहौल इतना शानदार था कि ये वक्त काटना बेहद आसान था। लोगों को दूर से निहारने में भी दिल बल्लियों उछल रहा था। हम करीब डेढ़ घंटे तक मरीन ड्राइव पर बैठे रहे। मैं पत्थरों पर लेट गया था और मुझे नीद भी आ गई थी। रह रह के एक सिहरन अक्सर पूरे शरीर में दौड़ जा रही थी कि अरे, क्या हम वाकई में वर्ल्ड चैंपियन बन गए हैं। लोग तब तक वहां बैठे रहे जब तक कि पुलिस वाले उन्हें भगाने नहीं लगे।
आखिर हम उस भीड़ को वहीं छोड़, जीत के उत्साह को मन और आंखों में समेटकर चर्च गेट आ गए। पहली लोकल पकड़नी थी हमें गोरेगांव आने के लिए। आधे घंटे के इंतजार के बाद हम ट्रेन में बैठ गए। पता नहीं चर्चगेट स्टेशन पर पहली लोकल पकड़ने के लिए इतनी भारी तादाद में लोग इससे पहले कब जमा हुए होंगे। हर जगह सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट था, धोनी था, युवराज था और मास्टर ब्लास्टर सचिन था। ट्रेन तेज रफ्तार में भागे जा रही थी कई स्टेशनों पर कई दिनों तक चलने वाली चर्चा को छोड़कर। कई बार मैं पशोपेश में पड़ जा रहा था कि ये उत्सव किस लिए है- खेल की जीत हुई है, देश की जीत हुई है या क्रिकेट के नशे में चूर हम भारतीयों की या फिर एक बहुत बड़े बाजार की जिसे फलने-फूलने से रोक पाना अब किसी के लिए भी नामुमकिन है? अब भी यकीन कर पाना मुश्किल है कि धोनी ने क्या जबरदस्त कारनामा कर दिखाया है।

अभिषेक सत्य व्रतम्
3 अप्रैल 2011

Monday, December 21, 2009

कार्तिक तूने क्या किया!


-अभिषेक सत्य व्रतम्
ये देश क्रिकेट के उन प्रेमियों का है जो क्रिकेट को सिर्फ एक खेल की तरह नहीं बल्कि जंग के नजरिए से देखते हैं और उस जंग में सचिन तेंदुलकर शामिल होतें हैं महाभारत के भगवान श्रीकृष्ण की तरह। और भगवान को दुखी देखकर जैसे भक्त नाराज होते हैं वैसे ही अपने देश में सचिन को दुखी होते देखकर क्रिकेट प्रेमियों का दिल बैठ जाता है। तभी तो तब कार्तिक ने ललचाती गेंद पर बेहतरीन टाइमिंग के जरिए गेंद को सीमारेखा के बाहर पहुंचा तो क्रिकेट प्रेमियों ने माथा पकड़ लिया। अबे रोक लिया होता...''छक्का मारने की क्या जरूरत थी...स्साले बड़ा बैट्समैन बनने चला है.'' शॉट की तारीफ करने की बजाए दिनेश कार्तिक को एसे विशेषणों से नवजा दिया गया। सचिन के चेहरे से साफ था कि शतक के दहलीज तक पहुंचकर वापस लौट आना कितने दुख की बात होती है। तभी तो जीत के बाद न तो जीत की खुशी थी। उत्साह गायब था, सचिन ने कार्तिक को गले तक नहीं लगाया। दूर से ही हाख मिलाकर महज औपचारिकताओं को पूरा कर लिया। सभी दुखी थे कि काश कार्तिक का बल्ला न चला होता तो सचिन की झोली में एक और शानदार सैकड़ा दर्ज हो जाता। सचिन एक महान प्लेयर हैं और उनकी महानता को बयान करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि हम उनकी तारीफ में कोई विशेषण न लिखें। उन्हें भी दुख तो होगा सैकड़ा से 4 रन दूर रह जाने का लेकिन निश्चित तौर पर इस बात की खुशी ज्यादा होगी कि देश जीत गया। सचिन को शायद इन 4 रनों से उतना फायदा नहीं होगा जितना कि टीम में जगह बनाने की कोशिश में लगे दिनेश कार्तिक को उनकी तेज तर्रार पारी से होगा। हालांकि कार्तिक ने जानबूझकर सचिन का जायका खराब करने की कोशिश नहीं की, लेकिन बॉल ही एसी थी कोई भी लालच खा जाए। इसलिए बेहतर यही होगा कि क्रिकेट को एक टीम गेम के तौर पर देखना हम शुरू कर दें। हां एक बात ये है कि अगर सचिन कोई और सेंचुरी नहीं बना पाते हैं तो दिनेश कार्तिक को याद करने वालों की संख्या और बढ़ जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे कि 1998 के इंडिपेंडेंस कप के फाइनल में चौका मारकर भारत की झोली में ट्रॉफी डालने के लिए रिशिकेष कानितकर को याद करते हैं। फर्क बस यही होगा कि दिनेश कार्तिक को यादकर के लोगों को अफसोस होगा। आखिर 'भगवान' को नाराज करने वाले को लोग कैसे माफ कर सकते हैं!

Monday, November 10, 2008

दादा!! हम तुम्हे यूँ भुला न पाएंगे....

सौरव गांगुली ने सन्यास ले लिया. सच पता है; दिमाग ने भी इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया है, लेकिन दिल अभी भी नहीं मान पा रहा है की उस सख्श ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया है जिसके लिए ये खेल सिर्फ़ बल्ले और गेंद से खेला जाने वाला खेल नहीं बल्कि जीवन का फलसफा था. एक ऐसा खेल जिसे सौरव ने बहुत कुछ दिया, अपने पसीने , अपने तेवर, हमेशा जूझने वाले अंदाज़ के लिए जाने जाने वाले सौरव ने क्रिकेट को आखिरकार बाय बोल ही दिया. सिफर से शिखर तक की यात्रा करने वाले सौरव के लिए सबसे अच्छी बात ये है की इस खिलाड़ी ने जिस अंदाज़ में खेल को छोड़ने का फ़ैसला किया उसे हमेशा याद रखा जाएगा. भले ही सौरव ने बहुत खामोशी के साथ क्रिकेट को छोड़ने का फ़ैसला कर लिया, लेकिन उनका बैट हमेशा इस बात की गवाही देता रहेगा की ये फ़ैसला वाकई सौरभ ने दिल से नहीं लिया.
सौरव ने भले ही कह दिया की एक दिन सबको छोड़ना होता है, लेकिन उनका प्रदर्शन इस बात का अहसास सबको दिलाता रहेगा की वस्तव में सौरव ने फ़ैसला तहे दिल से नहीं किया. ये एक ऐसा मजबूरी भरा फ़ैसला था जिसे यथार्थ का जामा पहनाया गया. सौरव वास्तव में थके नहीं थे, बूढे भी नहीं हुए थे, उन्हें थका दिया गया. उन्हें इस कठोर फैसले को अपनाने के लिए मजबूर कर दिया गया. आख़िर कब तक एक लड़ाका बैट से बोलने के बावजूद भी इतनी आलोचनाओं का सामना कर पाता? ऐसा नहीं है की ख़ुद सौरव ने भी इस सच को स्वीकार कर लिया था की उनका बैट खामोश हो गया, लेकिन सौरव ने भारतीय क्रिकेट के उस सच को स्वीकार कर लिया जिसका कोई आधार नहीं है, कोई पैमाना नही है, जिस सच को भारतीय क्रिकेट के आका ही सच करार देते हैं और बाकी दुनिया बस उसे सच मानने के सिवाय कुछ कर नहीं पाती. एक ऐसा सच जिसके लिए ना किसी सुबूत की ज़रूरत है न किसी गवाह की. सौरव ने उस सच के सामने आखिरकार हथियार डाल ही दिया. उनका बल्ला तो लगातार गरज रहा था. पूरे क्रिकेट जगत ने उनके बैट के स्वीट स्पॉट से छलके हर एक शोट को सुना लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्रिकेट की बागडोर सँभालने वाले आराजक निकले. उन्होंने सौरव को बाहर करने की ठान ली थी. आखिरकार क्रिकेट प्रेमियों से लेकर समीक्षकों तक की लगातार वाहवाही लूट रहे सौरभ को वन डे टीम से बाहर कर ही दिया गया. दो साल पहले जब सौरव को टीम में शामिल नहीं किया गया था तो सौरव ने हार नहीं मानी थी लेकिन अब की सौरव मान गए. वो समझ गए की अब इस रात की सुबह नहीं है. क्यूँकी जब किसी खिलाड़ी के प्रदर्शन को ही नकार दिया जाए तो उसके पास रास्ता ही क्या बचता है? सौरव ने कड़वे झूठ को मीठा सच समझ के निगल लिया और क्रिकेट को कह दिया अलविदा....
सौरव गांगुली भले ही अब क्रिकेट के मैदान में न नज़र आए, हो सकता की वक्त के तकाजे में हम उन्हें भूल जायें. लेकिन ये आँखे हमेशा ढूँढती रहेंगी ऑफ़ साइड में लगाये गए उनके सैकड़ों मखमली शॉट्स, एक ऐसे खिलाडी को जो जीत के नशे में खो जाने को हमेशा तैयार रहा, एक ऐसे इंसान को जिसने अपने भरोसे के दम पर कई ऐसे हीरों को तराशा जो आज भी अपनी चमक बिखेर रहे हैं.

Tuesday, July 29, 2008

एक आवाज़ ही तो दब गयी..



वायस ऑफ़ इंडिया 2007 के विजेता इश्मीत सिंह की स्वीमिंग पूल में डूबकर मौत।


यही सब कुछ चल रहा था बाकि न्यूज़ चैनल्स पर, ज्योंहि मैंने इस ख़बर को देखा मानो कुछ जम सा गया. मुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था की क्या ये वही इश्मीत है या कोई और, यकीन नहीं हो पा रहा था की ये वही इश्मीत है जिसकी आवाज़ टीवी चैनलों पर गूंजा करती थी. मुझे सचमुच कुछ नहीं समझ में आ रहा था. मैं कुछ पलों का लिए बिल्कुल सुन्न हो गया. साँस लेने में तकलीफ महसूस होने लगी, मैंने कुछ लम्बी साँसे खीची. इसके बाद कुछ ठीक लगा. सभी चैनलों पर ये ख़बर गूँज रही थी. मैंने सोचा अपने चैनल में भी चलना चाहिए, लेकिन एक शंका थी की यार अपना चैनल तो बिज़नस चैनल है ये ख़बर हमारे किस काम की. लेकिन मुझसे रहा नहीं गया, थोड़ी देर बाद मैंने अपने बॉस से जाकर पूछा " सर, इश्मीत वाली ख़बर फ्लैश कर दूँ?" सर को देखकर ऐसा लगा की चाहते तो वो भी हैं लेकिन कहीं कुछ अटक सा जा रहा है. अंततः सर ने कहा," फ्लैश नहीं, टिकर में डाल दो" मैंने सोचा चलो पट्टी में ही सही इश्मीत को जगह तो मिल जायेगी अपने चैनल पर. मैं आकर अभी टाइप कर ही रहा था की पीछे से आवाज़ आयी, " अभिषेक, रहने दो"

शायद किसी ने सोचा होगा की इसमे किसीके मुनाफे और घाटे से जुडी कोई चीज तो है नहीं. सही बात है किसीका क्या गया. गया तो सिर्फ़ इश्मीत. सेंसेक्स ऊपर नीचे होता तो कोई बात होती, यहाँ तो एक गायक मरा था जिसके स्वर ऊपर नीचे होकर लाखों लोगों के दिलों के तार को झंकृत कर देते थे. थोड़ी सी संवेदना ही तो पिघली थी. एक साँस ही तो घुट गयी होगी. एक आवाज़ ही तो दब गयी..

Monday, July 28, 2008

बारिश का एहसास घुटने से ऊपर तक


मुंबई की बारिश के बारे में तो मैंने बहुत सुना था लेकिन आज मैंने महसूस भी कर लिया, घुटने से ऊपर तक। इससे ज्यादा पानी में चलकर मैं स्टेशन पंहुचा। बहुत चैलेंजिंग लगा। मजा भी क्रिकेट से कम नहीं आया। इसलिए सोचा की क्यूँ न अपने इस अनुभव को मैं लिखूं...

फिलहाल मुबई में ही रह रहा हूँ, एक अच्छे न्यूज़ चैनल को कुछ हफ्ते पहले ही ज्वाइन किया है. ज्वाइन करने के बाद अभी अपनी बुआ के यहाँ ही रहे रहा हूँ. वैसे तो ये मेरी नहीं बल्कि मेरे बाबूजी की बुआ हैं लेकिन मुझे कभी कोई फर्क लगा ही नही. रात को सोते वक्त ये सोच कर सोता हूँ की सुबह जल्दी जग जाऊँगा और बुआ की कुछ मदद कर दूंगा. बुआ लगभग बुढापे की और बढ़ चलीं हैं, अगर हमे खाने को ४ रोटियां मिल जाती हैं तो वो भी बहुत बड़ी बात है. ये सुनने में बहुत ही अजीब लगता है की कुछ लोग जो बुआ के यहाँ एक अरसा गुजर कर जाते हैं बाद में बुआ की बुराई भी करते है. पीठ पीछे . क्यूंकि सामने तो किसी की भी हिम्मत नहीं होगी. आख़िर जो कुछ भी बुआ से मिलता है वो प्लस में ही होता है. लेकिन लोगों की फितरत होती है. बहरहाल कल रात को भी यही सोचकर बिस्तर पर गया की सुबह जल्दी जागना है. लेकिन बकर में २ घंटे निकल गए. रात को ठंढ लगने से रुक-रुक कर नीद आती रही. सुबह जब जगा तो ग्यारह बज रहे थे. बहुत आत्मग्लानि हुई. फूफाजी ऑफिस जा चुके थे. मैंने बिस्तर मोड़ कर रखा, फ़िर खिड़की से बाहर झांकते ही मेरा मन हिलोरे मारने लगा. पता नहीं बारिश होते देखकर इतनी खुशी क्यों होती है. बारिश से जुडी बचपन की कई यादें बाइस्कोप की रील की तरह आंखों के सामने की तरह गुजर जाती है. सब कुछ हरा भरा सा लगने लगता है. बहरहाल ऑफिस तो जाना ही था चाहे बारिश हो या तूफ़ान. बारिश को झांकते निहारते दो घंटे यूँ ही निकल गए. ये जानते हुए की बारिश में बाहर जाना कितना कष्टप्रद होगा मैं खुश हो रहा था, एक बजे मैं घर से निकल गया, रोज इसी वक्त निकलना पड़ता है. अजय भइया का छाता लिया और आ गया नीचे. रोड पर गया तो बारिश झमाझम. छाते के वश की बात नहीं थी. वैसे ऑटो जल्दी ही मिल गया, अन्यथा कई बार इस बारिश के आगे वो भी हथियार डाल देते हैं. मैंने सोचा चलो अब तो टाइम से ऑफिस पहुच ही जाऊंगा. हालाँकि बारिश की बौछार से मैं ऑटोरिक्शा के अन्दर भी नहीं बच पाया, किनारे से भीग ही गया था. रोड पर हर तरफ़ पानी ही पानी था. इस में भी दूसरे गाडी वालों को भी खुमारी छाई हुई थी. किनारे से गुजरते वक्त वो भी पानी बरसाने से बाज नहीं आते थे..छर्र से बड़ी बड़ी बूंदे शरीर पर. आधा रास्ता तो किसी तरह कट गया. मुझे भी लगा की आधी बाजी तो अपनी हो गई, मुंबई के ध्रुवसत्य जाम में भी नहीं फंसा. लेकिन आगे का नजारा देखकर तो मैं कांप ही गया. सड़क पर लोग घुटने तक पानी में जा रहे थे. ऑटो वाले ने कुछ दूर तक साहस दिखाया लेकिन फ़िर उसने भी हथियार डाल दिया. हलाँकि मैं उससे उसी पानी में जाने को कहता रहा, सड़क पर पानी देखकर तो ये ही लग रहा था की इसमे जाना लगभग नामुमकिन है. ऑटोवाले ने ये कहकर पीछा छुडाया की अब तो स्टेशन नजदीक ही है. मुझे पता था की ये झूठ बोल रहा है क्यूँकी वहां से अब भी स्टेशन करीब आधे किलोमीटर से जयादा दूर था. लेकिन मैंने ग्यारह रुपये निकालकर उसे दिया और उसे जाने दिया. अब मैंने छाता खोला, पैंट ऊपर चढाया और चल दिया. शर्म इसलिए नहीं आ रही क्योंकि लगभग सभी लोग पैदल ही जा रहे थे. गाडी वालों की तो बुरी हालत थी. मोटरसाईकिल वाले तो ठेल कर ले जा रहे थे. शुरू में तो पानी एक फ़ुट तक रहा होगा, लेकिन आगे जाने पर तो हद ही हो गयी. पानी घुटने भर से जयादा था. मन ने कहा की भाई घर लौट जाओ. लेकिन मैं ऑफिस चाहता थ. मैंने पैंट थोड़ा और ऊपर किया और चल पड़ा. मेरे पास छाता होने के बावजूद मैं आधे से ज्यादा भीग गया. मैं चलता रहा इसी बीच जो पैंट मैंने मोडा था वो खुल के पानी में हो गया, पानी के हिलोरों से वो बिल्कुल पानी में डूब गया. अब फ़िर से मैंने सोचा की ऑफिस में सर को फ़ोन करके बोल दूँ की आज ऑफिस नहीं आऊंगा. ये सोच रहा था और चला जा रहा था. कुछ लोग तो जांघ तक पानी में थे. मैंने तय किया कुछ भी हो ऑफिस तो जा के रहूँगा. कुछ देर तक तो भीगने की वजह से मन ख़राब हो रहा था. लेकिन बाद में मुझे आनंद आने लगा. मुझे इसकी चिंता भी नहीं रही की ऑफिस कितनी देर से पहुचुंगा. मैं आराम से चल रहा था. मेरे कपड़े पूरी तरह भीग गए थे. मुझे इस बात का भी पूरी तरह एहसास हो गया की छब्बीस जुलाई का क्या मंजर रहा होगा. अगर किसीने मुबई की बारिश को झेला नहीं है तो वो इसे नहीं समझ नहीं सकता. मैं जब गाँव में रहता था तो भी इतने ज्यादा पानी में चलकर इतनी दूर नहीं गया. कुछ लोग तो इतने पानी में गंगाजी में नहाने से कतराते हैं. किसी तरह स्टेशन पहुँचा. पैंट भीगकर भारी हो गया था इसलिए चलने में भी मुश्किल हो रहा था. किसी तरह स्टेशन पहुँचा, कूपन वैलिडेट किया और जाकर चर्च गेट की गाडी में बैठ गया. देर की फिक्र बिल्कुल नहीं हो रही थी. पैर बुरी तरह दर्द कर रहे थे. बारिश की वजह से गाडी भी रुक रुक कर चल रही थी. जब ऑफिस पहुंचा तो ३ बज रहे थे, किसी ने पूछा नहीं की देर क्यों हुई, उस दिन मुझे अकेले ही मोर्चा संभालना था. मैं जाकर अपने काम में जुट गया भीगे कपडों में ही..रात तक कपड़े तो सूख गए. लेकिन यादें बारिश की यादें कभी नहीं सूखेंगी. भीग जाने और थक जाने के बावजूद मजा आ गया था.

Saturday, July 12, 2008

A, B और C ग्रेड क्रिकेट

वन डे क्रिकेट के भविष्य पर एक प्रश्नवाचक चिह्न लग गया है. क्रिकेटीय गलियारों में इस बात की चर्चा जोरों पर है की अब तक क्रिकेट के लघु संस्करण कहे जाने वाले इस स्वरुप में ओवरों की संख्या घटाकर 40 कर दिया जाय. लोगों को अचानक एकदिवसीय क्रिकेट बड़ा और झेलाऊं लगने लगा है. ज्यादातर लोगों ने इस बात की हामी भर दी है की अगर क्रिकेट के इस फॉर्म को जिन्दा रखना है तो इसके फोर्मेट में बदलाव किया जाना बहुत ज़रूरी है. मगर ध्यान देने वाली बात ये है जो भी लोग ओवर्स को कम करने की हिमायती कर रहे हैं उनमे से ज्यादातर का क्रिकेट से कोई लेना-देना नहीं है. उनको सिर्फ़ मजा से मतलब है. बाकी इससे क्रिकेट का सत्यानाश हो इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है.
ट्वेंटी -ट्वेंटी में मज़ा, भरपूर पैसा के बावजूद क्रिकेट खिलाड़ियों ने तो अभी तक इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है. यहीं नहीं कंगारू टीम के कप्तान रिक्की पोंटिंग ने तो कई बार अपनी भड़ास ट्वेंटी-ट्वेंटी पर निकली है. सचिन तेंदुलकर ने भले ही आईपीएल में शिरकत करने के लिए भरी भरकम पैसा लिया हो लेकिन बात जब क्रिकेट के किसी एक संस्करण को चुनने की आती है तो वो हमेशा टेस्ट क्रिकेट के लिए हामी भरते है. अगर भारत के पिछले कुछ मैचों को देखा जाए तो उससे यही लगता है कि सचिन ने तो अब ट्वेंटी-ट्वेंटी के अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में न खेलने का फ़ैसला लगभग ले ही लिया है.
जहाँ तक ओवेर्स को कम करने की बात है तो उससे मुझे नहीं लगता की ऐसा करके भी ICC दर्शकों की इच्छाओं की पूर्ति करने में कामयाब हो पायेगी. बात वहीँ की वहीँ रह जाएगी चाहे मैच चालीस ओवेर्स का हो या पचास ओवेर्स का क्यूंकि खासतौर से जिन लोगों को क्रिकेट के इस दनादन स्वरुप (20-20) ने दीवाना बनाया है, उन्हें न तो क्रिकेट की बुनियादी समझ है न ही उससे कोई सरोकार है. उनको मतलब है तो बस लगने वाले चौकों और छक्कों से. जाहिर सी बात है ये चौके छक्के किसी को भी अपनी रोमांच की गिरफ्त में लेने के लिए काफी हैं. कुछ लोगों की दलील ये है की जब लोग देखना ही नहीं चाहते तो आख़िर उन्हें दिन भर क्यूँ दिखाया जाय. ये बात कुछ हद तक जायज हो सकता है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है की किसी व्यक्ति या समुदाय की पसंद नापसंद की खातिर किसी खेल के बुनियादी ढांचे में इतना बड़ा बदलाव बदलाव करना कहाँ तक जायज है? अगर वाकई लोगों के पसंद और नापसंद का इतना ही ख्याल रखा जाता है तो मेरे समझ से नब्बे फीसदी से भी अधिक लोग इस बात के लिए तैयार हो जायेंगे की टेस्ट क्रिकेट को बंद कर दिया जाय. क्योंकि एकदिवसीय क्रिकेट की दशा तो फ़िर भी ठीक है, लेकिन टेस्ट मैच के लिए दर्शक जुटाने में आयोजकों को पसीने छूट जाते हैं. लेकिन 1878 से चल रहे इस संस्करण के कायदे-कानून को लेकर किसी ने अब तक बड़ी मुहीम छेड़ने की कवायद नहीं की. दिन की संख्या अब भी पाँच है. इसको कम करने के नाम पर कभी-कभार हल्की खुसुर-फुसुर के अलावा कुछ खास नहीं किया गया. आख़िर क्यूँ? वजह बिल्कुल साफ़ है की लोगों ने क्रिकेट के इस स्वरुप को स्वीकार कर लिया है. इसलिए इसमे लोगों को बदलाव की न तो गुंजाईश लगती है न ही कोई बहुत बड़ी ज़रूरत महसूस होती है.
एक और बात बहुत ही ज़रूरी है की किसी भी खेल की रूपरेखा उस खेल से जुड़े खिलाड़ियों को करना चाहिए या इसका फ़ैसला उन लोगों पर छोड़ देना चाहिए जिनके लिए खेल खेल नहीं बल्कि मनोरंजन का एक जरिया भर है. या इसका फ़ैसला सिर्फ़ बाज़ार पर छोड़ देना चाहिए जो हर चीज को अपनी बनाई पटरी पर चलाना चाहता है चाहे वो खेल हो, सोच हो, या संवेदनाएं. अगर ख़ुद खिलाडी सामने आकर कुछ आवाज़ उठाते तो बात कुछ और थी. उसके कुछ मायने भी होते. लेकिन सिर्फ़ देख्नने वालों के लिए खेल को सिर्फ़ मनोरंजन की चासनी में डुबोकर परोसना कहाँ तक तर्कसंगत है. और हां अगर मान लिया जाय की इस बदलाव से वन डे क्रिकेट के वजूद पर कोई संकट नहीं आएगा तो इसकी गारंटी क्या है? क्या ये सम्भव नहीं है की अगले कुछ दिनों/ महीनों में लोगों को इसका स्वाद फ़िर से फीका लगने लगेगा. फ़िर क्या होगा? क्या फ़िर ICC ओवेरों में कटौती करेगा? सवाल कुछ पेचीदा है, लेकिन इस पर मंथन की भी ज़रूरत है. क्यूंकि तब फ़िर इस बात पर सोचने की ज़रूरत होगी की खेल को खेल ही रहने दिया जाय या फ़िर इसे बाज़ार के मजबूत खूंटे से बाँध दिया जाय. बाज़ार तब तक और तगड़ा हो जाएगा और ये भी सम्भव है कि उसे काबू में करने के लिए क्रिकेट की ही बलि चढाना पड़े. इस लिए आज ज़रूरत इस बात की है पहले से ही बाज़ार के घुसपैठ की सीमारेखा तय कर दी जाय. या फ़िर क्रिकेट में भी फिल्मों की तरह ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर दिया जाय A, B और C ग्रेड क्रिकेट. वैसे भी खिलाड़ियों को पहले से ही ग्रेडिंग की आदत पड़ ही चुकी है.

Monday, June 30, 2008

अपने धोनी भइया थक गए हैं

अपने धोनी भइया थक गए हैं। कह रहे हैं की अब उनसे इतना ज्यादा क्रिकेट नहीं खेला जाता। यही नहीं अपनी बात को सही साबित करने के लिए ये साथी खिलाड़ियों का हवाला देना भी नहीं भूलते हैं। अरे भाई ये तो कोई बात नहीं हुई। आई पी एल खेलते वक्त तो आपने एक बार भी नहीं कहा की हम थक गए।क्या मजाल की थकन कभी आसपास भी फटके। पर जब बारी देश के लिए खेलने की आई तो पाँव थक कर चूर हो गए। ये तो अच्छी बात नहीं हैं न धोनी भइया। आख़िर जब इतनी ही थकान हो रही थी तो क्या ज़रूरत थी दनादन क्रिकेट की मदमस्त कर देने वाले माहौल में इतने लंबे काश लगाने की। आराम से घर पर बैठे होते, और अगर आपका स्वीमिंग पूल तैयार हो गया हो तो उसमे नहा लिए होते। लेकिन नहीं भाई , ये सम्भव भी तो नहीं था आख़िर छे करोड़ रुपये कहाँ कम होते हैं। एक तो आपने सबसे ज्यादा रुपये भी जुटाए अब थकन का रोना भी रो रहे हैं। आख़िर आपने एक सीधा सादा मुहावरा तो सुना ही होगा..'कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है'..और आपने कुछ कहाँ बहुत पाया, सबसे अधिक। फ़िर भी ऐसी बातें..छी.,छी आपको ये बिल्कुल शोभा नहीं देतीं। और हाँ एक बात और आप तो शुरुआत में रोज ३ लीटर दूध पी जाया करते थे। क्यूँ अब नहीं PEETAAAअब तो आपके पास इतना अकूत है की आप दुनिया के किसी भी भैंस का दूध पी सकते हैं। जो मन वो कर सकते हैं, अगर थोड़ी बहुत थकन होती ही है तो भी आप जैसे बहादुर पुरूष को ये बात शोभा नहीं देती। आप ही ऐसे हिम्मत हार जायेंगे तो बाकियों का क्या होगा!! तनिक उनका भी तो ख्याल करिए , आख़िर आप सेनापति जो ठहरे। और ऐसा भी नहीं है की आप हार का ठीकरा ज्यादा क्रिकेट पर फोड़ रहे हों, आप तो लगातार जीत रहे हैं। फिर भी ऐसी बातें!!
इससे तो यही लगेगा न आपको अभी मजा नहीं आ रहा है, ज़ाहिर सी बात है सिर्फ़ देश के लिए खेलकर ४४ दिन में ६ करोड़ रूपए तो मिलेंगे नहीं, न ही उतना मजा मिलेगा , थोड़ी बोरियत तो होगी ही।

Saturday, June 7, 2008

नौकरी खोजता रहा और आईपीएल देखता रहा

ब्लॉग पर लिखे हुए बहुत दिन हो गया था। मैं ऐसा नहीं कहूँगा की वक्त की कमी थी बल्कि सीधे शब्दों में कहें तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था। एक तरफ़ नौकरी खोजने की कवायद तो दूसरी तरफ़ धूम मचाता दनादन क्रिकेट आईपीएल .नौकरी खोजता रहा और आईपीएल देखता रहा है. नौकरी की ज़ंग तो मैंने जीत ली और क्रिकेट की राजस्थान रोयाल्स ने। इस बीच वाकई कुछ लिखने को याद नही रहा लेकिन ऐसा नहीं था मेरे अन्दर कुछ चल नहीं रहा था। इस बीछ मैंने कई सारे बदलावों को महसूस किया जिनसे मैं इत्तेफाक नहीं रखता था। मसलन आईपीएल का हिट ही नहीं बल्कि सुपर हिट हो जाना। कुछ ऐसे चेहरों का अचानक चमक जाना जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था शायद उन्होंने भी नहीं जिन्हें क्रिकेट के इस रूप ने सब कुछ दिया, पैसा, शोहरत, नाम , पहचान, और platform . एक शक भी डूब गया की ..यार इस लीग क्रिकेट का होगा क्या इंडिया में। सारी गलतफहमियां मैच से दूर हो गयीं। शायद बहुत से लोगों को नहीं पता final के साथ-साथ किला फतह करने वाली राजस्थान की टीम में एक भी प्लेयर राजस्थान की मिटटी का नहीं था.... लीग चल निकला ...

Thursday, February 14, 2008

यार! इशांत ने तुम्हारी बात दिल पे ले लिया....

ज़िंदगी की दौड़ बहुत ही अजीब होती है... स्पीड की गारंटी कोई नही दे सकता है॥ रफ़्तार कब तेज और कब मद्धम हो जाय कोई नही बता सकता है... दो तीन महीने पहले मैं जामिया यूनिवर्सिटी गया हुआ था...एक बहुत ही खास मित्र रहता है.. कैम्पस में तफरीह कर रहे थे... भूख लगी फ़िर हम लोग कैंटीन की तरह मुड गए....कैंटीन से जामिया का ग्राउंड बिल्कुल सटा हुआ है...हमने देखा की ग्राउंड में कोई क्रिकेट मैच चल रहा था... बाउंड्री लाइन के नजदीक कुछ लोग बैठकर मैच का आनंद ले रहे थे... दूर से जो कुछ दिख पा रहा था उससे यही लगा की मैच क्लब लेवल का है । पविलियन की तरफ़ भीड़ कुछ ज़्यादा ही थी. और स्कोर बोर्ड पर भी एक आदमी तैनात था.... हम लोग भी अपनी क्रिकेट के लिए दीवानगी को दबा नही सके और चल पड़े क्रिकेट ग्राउंड के पास.. कुछ देर तक हम घेरे के पास खड़े होकर ही मैच देखते रहे... लेकिन दिल नही माना और हम लोग रेलिंग के भीतर बाउंड्रीलाइन के पास जाका बैठ गए... रेलिंग के बाहर ड़ी ड़ी न्यूज़ की गाडी देखर इतना समझ में आ गया की मैच है तो क्लब लेवल का ही लेकिन इसमे ज़रूर ही कुछेक नामचीन खिलाड़ी शिरकत कर रहे हैं . हम लोग भी जाकर बाउंड्री लाइन के पास बैठ गए. वहाँ से कुछ ही दूरी पर एक लंबा सा खिलाडी फील्डिंग कर रहा था. शक हुआ की कहीं ये इशांत शर्मा तो नही. कुछ देर तक मैंने रवि से भी इस बारे में नही पूछा लेकिन जब मेरा शक यकीं में बदल गया मैंने रवि से पूछ और रवि ने भी कहाँ अरे हाँ ये तो वही है. हमारी उत्कंठा और बढ़ गयी. मैंने रवि से चुटकी ली "यार बढ़िया मौका है ले लो ऑटोग्राफ". रवि ने भी तुरंत पूछा फ़िर से टीम में आयेगा क्या?? मैं चुप रहा क्योंकि पिछले मौके को भुनाने में दिल्ली का ये छोरा पूरी तरह नाकाम रहा था...उस वक्त न तो गेंदों में वो रफ़्तार ही थी न ही खतरनाक स्विंग. फ़िर कुछ देर तक हम इस बात का इंतज़ार करते रहे की अब इशांत बोलिंग करने आएगा. लेकिन ऐसा नही हुआ. इशांत को बोलिंग करते हुए देखने की तमन्ना थी इसलिए हम डटे रहे लेकिन जब सब्र का बाढ़ टूट गया तो हम सरकते हुए स्कोरर के पास पहुँच गए....ये जानकर बहुत ही सुकून हुआ की उसके दो ओवर अभी बाकी थे... मैच ४०-४० ओवरों का था और तब तक इशांत ने ६ ओवरों में कुल १८ रन दिए थे. कुछ देर में ही इशानत को बाल पकडा दी गयी. इशांत की गेंदों की रफ्तार देखकर हम दंग रह गए.. वाकई कुछ ख़ास था उसमें... देखकर लग गया.. बन्दे में दम तो है भाई.. इशांत की टीम वो मुकाबला जीत गयी. अब जब भी इशांत को बोलिंग करते हुए देखता हूँ तो लम्हा ज़रूर याद आता है. रवि मिलता है तो उससे चुटकी लेना नहीं भूलता हूँ.." यार रवि! लगता है इशांत ने तुम्हारी बात सुन ली और दिल पे ले लिया" इशांत की गेंदों की रफ़्तार में भी गज़ब इजाफा हुआ है और उसकी ज़िंदगी में भी..... इससे खास क्या होगा की ख़ुद श्रीनाथ ने उसे दुनिया का सबसे खतरनाक गेंदबाज करार दे दिया.

Sunday, January 20, 2008

श्रीसंत के जलवे

एस श्रीसंत .... हमेशा चर्चा में रहते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की वो मैदान में हैं या मैदान से बाहर। हर वक़्त.... हर जगह... अपने कारनामो से लोगों को लुभाने का कम करते रहते हैं। अब श्रीसंथ की अदाए हैं ही ऐसी की लोग झूमने को मजबूर हो जाते हैं...आंद्रे नेल को छक्का मारने के बाद बैट के साथ भांगडा करना हो , विकेट लेने के बाद जमीन को चूमना हो ... सब कुछ लोगों को खूब पसंद आता है.... और तो और शाहरूख खान के डान्स ट्रैक पर खुद शाहरूख को ही जोरदार टक्कर देना...इसे लोग भला कैसे भूल सकते हैं! जी हाँ! यही वो सारी बातें है जो साबित करती हैं की ज़रूर कुछ अलग है रफ़्तार के इस सौदागर में। वाकई! मैदान के अन्दर जितनी जहरीली उनकी गेंदे होती हैं उतनी ही दिलकश होती हैं उनकी अदाएँ। और मैदान के बाहर उन्के जलवों के क्या कहने..... सभी कायल हैं॥लड़कियां तो जैसे हमेशा यही कहती हैं "तुझपे दिल कुर्बान" । टीम इंडिया का कुंवारा न.१ फिर तैयार हैं कारनामा करने को..आस्ट्रेलिया में होने वाली ट्राएंगुलर सीरीज़ में और श्रीलंकाई शेरों के छक्के छुडाने को। और इस बार ये नौजवान चर्चा में आया है अपने हाँथ पर बनवाए एक टैटू की वजह से... आप सोच रहे होंगे की आख़िर ये टैटू है किस चीज का! हम बताते हैं आपको.... ये टैटू है एक बिच्छू का... जी हाँ बिच्छू का... क्यों हैं न मजेदार... शायद इसके जरिये श्रीसंत ये बता देना चाहते है की विरोधियों !!!हो जाओ तैयार... कस लो अपनी-अपनी कमर। मैं आ रहा हूँ... मेरी गेंदें उतनी ही जानलेवा होंगी जितना बिच्छू का डंक..