Thursday, December 13, 2007

बीसीसीआई के दामाद वीरु !


- अभिषेक सत्य व्रतम्



क्या टीम इंडिया में प्रवेश पाने के लिए प्रदर्शन कोई मायने रखता है ?? जवाब तो हमेशा हाँ होना चहिये। वैसे ये सवाल कुछ अज़ीब भी है॥ कुछ लोग तो ये भी कह सकते हैं की "अबे इडियट हो क्या??? ये क्या बेवकूफों वाले सवाल करते रहते हो।" हाँ, ये सवाल तो वाकई मूर्खों वाला होता अगर टीम इंडिया में सेंधमारी की कोई गुंजाइश नहीं रहती तो। एक बात और ये कि चयन करते वक़्त चयनकर्ताओं का ध्यान किस बात पर होना चाहिए? हालिया प्रदर्शन पर या भूतकाल में लगाये गये किसी दोहरे या तिहरे शतक की ओर ?? अगर प्रदर्शन का वाकई कोई मतलब होता तो शायद विरेन्दर सेहवाग का अभी टीम में आना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी था।
वीरु को टीम में घुसेड़ने के पीछे दलील ये दी गई कि गौतम गम्भीर को चोट लगने की वजह से वीरू को मौका मिल गया। वाह भाई वाह!! इससे तो यही लगता है कि जिस काम के लिये गम्भीर को टीम में लिया गया होता, वह केवल और केवल वीरू को ही पता है। भाई ये तो पता ही है कि वीरू दिल्ली के कप्तान हैं और चूंकि गम्भीर भी दिल्ली की ही नुमाइन्दगी करते हैं इसलिए कुछ खुफिया बातें या कुछ खास नुस्खे वीरू ने गम्भीर को बताए होंगे। हमारे चयनकर्ताओं ने शायद यही बात सोची होगी... क्यों वेंगसरकर साहब!! सही कहा न मैंने!!
लेकिन आप लोगों ने आकाश चोपड़ा का नाम तो सुना ही होगा.. अरे वो भी दिल्ली का ही है और इस सीजन में तो उसने जमकर रन भी बटोरे हैं। हो सकता है याद न आया हो। आखिर कितने ढ़ेर सारे काम रहते हैं आप लोगों के जिम्मे। कॉलम लिखने से लेकर ना जाने क्या-क्या!! है कि नहीं? पर इतना तो याद रखना ही चहिये कि आकाश भी दिल्ली के ही हैं। और ओपनिंग भी करते हैं... रन भी कुछ कम नहीं बनाए हैं उन्होंने... आंकड़े गिनाने का क्या फायदा!! बस्स! इतनी जानकारी काफी है कि हाल में खेले गए जिन घरेलू मैचों में वीरु फ्लाप हो गये थे जबकि साथ खेलते हुए आकाश ने एक शतक और एक दोहरा शतक था।
आकाश भी माथा पीट रहे होंगे कि काश उन्होंने भी अगर चार-पांच साल पहले कोई जोरदार पारी खेली होती तो आज उनको ये दिन नहीं देखना पड़ता। अब भई वीरू की पारिया हैं ही इतनी लाजवाब कि तुरंत याद आ जाती हैं। भले ही अभी उनका बल्ला एक अर्धशतक का भी मोहताज हो.... और तो और उनका 309 का पहाड़ "दीवार" के शशि कपूर की "मां" से किसी भी मामले मे कमतर थोड़े ही है। तभी तो 24 सम्भावितों कि सूची में नाम ना होने के बावजूद सीधे टीम में अचानक पैदाइश हो गई। हो सकता है सहवाग का नाम सम्भावितों की सूची में इसलिए नहीं दिया गया हो कि लोग सेलेक्शन कमेटी के खिलाफ आग ना उगलने लगे... आखिर पर्फार्मेंस के दम पर तो उनकी जगह तो सम्भावितों की लिस्ट में भी नहीं होनी चहिए थी। वीरू का बल्ला तो ऐसा खामोश है कि बोलने का नाम ही नहीं ले रहा है। वैसे भी फिक्र करने की क्या बात है जब ऐसे ही...।
देश मे कई ऐसे जाबांज है जिनका बल्ला लगातार गरज रहा है, लेकिन वे लगातार नज़रअन्दाज़ कर दिए जाते हैं... क्योंकि उनके पास न तो "309" ही है, न ही "309" जैसी पहुंच वाले लोग. है तो बस अकूत काबिलियत जिसका बहुत मोल नहीं है। उनको कभी यह कहकर टीम में नहीं लिया जाता है कि टीम में गुंजाइश नहीं थी, तो कभी टीम काम्बीनेशन का रोना रोया जाता है। कभी-कभी तो जानदार प्रदर्शन के बावजूद ओछा बयान आता है कि" अमुक नामों पर विचार नहीं किया गया......." आकाश चोपडा, पार्थीव पटेल, एस बद्रीनाथ, सुरेश रैना ऐसे ही कुछ होनहार प्लेयर्स में से हैं जो पिछ्ले कुछ महीनों से लगातार टीम इंडिया के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं. लेकिन समय बीतने पर उनके अच्छे प्रदर्शनों को वैसे ही कूड़ेदान में डाल दिया जाता है जैसे कि अच्छी सिंकी रोटियों को भी बासी होने के बाद फेंक देते हैं।
वैसे इस बात में कोई शक नहीं है कि वीरू में किसी भी बालिंग अटैक की बधिया उधेड़ने का माद्दा है लेकिन टीम के गठन के वक़्त बीसीसीआई के आकाओं को ये नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव का एकमात्र पैमाना प्रदर्शन है। इस प्रकार के दोहरे मानदंडों से नुकसान तो क्रिकेट का ही होगा। कई सालों के बाद जब वसीम जाफर को टीम में लिया गया था तो इस बात की कानाफूसी हुई थी कि जाफर को टीम में जगह इस वजह से मिली क्योंकि जाफर के पिता शरद पवार की गाड़ी चलाते थे.. लेकिन जाफर ने अपने दमखम से अपने आलोचकों का मुंह बन्द कर दिया था। कुल मिलाकर कहना यही चाहता हूं कि वीरु को टीम में लेने के पीछे आखिर कौन है, अब ये सोचना जरुरी हो गया है।

Wednesday, December 5, 2007

आपके चश्मे का नम्बर क्या है???

चश्मे जब पुराने हो जाते हैं तो उनके नम्बर बदल जाते हैं। कुछ लोग शौकिया चश्मा लगाते हैं तो कुछ लोग मजबूरीवश चश्मा लगते हैं, वहीं कुछ लोग चश्मा सिर्फ इसलिए लगाते हैं क्योंकि चश्मे से ही उनकी पहचान होती है और बिना चश्मे के विकलांगता का एहसास होता है... मानसिक विकलांगता .. सामाजिक विकलांगता... उन्हें चश्मे की कोई जरूरत नहीं होती फिर भी वो चश्मा ज़रूर लगाते हैं। अगर उनसे पूछ दे की भाई साहब! आपकी नज़र तो ठीक है फिर आप चश्मा क्यों लगते हैं? तो शायद उनके पास इस सवाल का कोई ज़वाब न हो!!!!! ऐसे लोगों को धुंधला देखने की आदत हो जाती है.साफ दिखाई देने के बावजूद साफ देखने कुछ अटपटा सा लगने लगता है॥ ऐसे बहुत से लोग हैं जो अपना चश्मा अगर उतार कर फेंक दे तो समाजिक बदलाव के प्रति उनका नजरिया बहुत ही सकारात्मक लगेगा। लेकिन चश्मे से पॉवर है भले चश्मा बिना पॉवर का हो॥
हमारे देश में आर्थिक उदारीकरण के दौर को शुरू हुए भले ही १५ साल से ज्यादा न हुआ हो लेकिन सामाजिक उदारीकरण की शुरुआत बहुत पहले हो गयी थी। लेकिन अफ़सोस इस बात का है की हम अब तक उस बदलाव को महसूस नहीं कर पा रहे हैं जो अब तक हो जानी चाहिऐ थी। वजह सिर्फ यही है की समाज बदला , सामाजिक सरोकार बदले , पुरानी परम्पराएं ध्वस्त हो गयी ..लेकिन जो चीज नही बदली वो है सोच..इसके धरातल पर चीजें अभी कमोबेश वैसी ही हैं..कुछ मोहरे बदल गए हैं..तो कुछ नयी चालों का इजाद हुआ है॥ जहाँ दुनिया के और कोनों में नारीवाद आंदोलन और पुरुष वाद आंदोलन चरम पर है वहीं यहाँ कुछ लोग चौघदे के चार रंगो से ही समाज को रंगीन करने में मशगूल हैं... ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र...इन रंगो को मिलाने की जहमत ऐसे लोग कतई नहीं उठाना चाहते जिनके पास पुराने चश्मे अभी भी मौजूद हैं.
आज ज़रूरत है पुराने चश्मों को उतार कर दूर फेंक देने की...ज्यादा दिन तक पुराने चश्मे लगाने से आँखे भी खराब हो जाती है..पता है न आपको!!!