चश्मे जब पुराने हो जाते हैं तो उनके नम्बर बदल जाते हैं। कुछ लोग शौकिया चश्मा लगाते हैं तो कुछ लोग मजबूरीवश चश्मा लगते हैं, वहीं कुछ लोग चश्मा सिर्फ इसलिए लगाते हैं क्योंकि चश्मे से ही उनकी पहचान होती है और बिना चश्मे के विकलांगता का एहसास होता है... मानसिक विकलांगता .. सामाजिक विकलांगता... उन्हें चश्मे की कोई जरूरत नहीं होती फिर भी वो चश्मा ज़रूर लगाते हैं। अगर उनसे पूछ दे की भाई साहब! आपकी नज़र तो ठीक है फिर आप चश्मा क्यों लगते हैं? तो शायद उनके पास इस सवाल का कोई ज़वाब न हो!!!!! ऐसे लोगों को धुंधला देखने की आदत हो जाती है.साफ दिखाई देने के बावजूद साफ देखने कुछ अटपटा सा लगने लगता है॥ ऐसे बहुत से लोग हैं जो अपना चश्मा अगर उतार कर फेंक दे तो समाजिक बदलाव के प्रति उनका नजरिया बहुत ही सकारात्मक लगेगा। लेकिन चश्मे से पॉवर है भले चश्मा बिना पॉवर का हो॥
हमारे देश में आर्थिक उदारीकरण के दौर को शुरू हुए भले ही १५ साल से ज्यादा न हुआ हो लेकिन सामाजिक उदारीकरण की शुरुआत बहुत पहले हो गयी थी। लेकिन अफ़सोस इस बात का है की हम अब तक उस बदलाव को महसूस नहीं कर पा रहे हैं जो अब तक हो जानी चाहिऐ थी। वजह सिर्फ यही है की समाज बदला , सामाजिक सरोकार बदले , पुरानी परम्पराएं ध्वस्त हो गयी ..लेकिन जो चीज नही बदली वो है सोच..इसके धरातल पर चीजें अभी कमोबेश वैसी ही हैं..कुछ मोहरे बदल गए हैं..तो कुछ नयी चालों का इजाद हुआ है॥ जहाँ दुनिया के और कोनों में नारीवाद आंदोलन और पुरुष वाद आंदोलन चरम पर है वहीं यहाँ कुछ लोग चौघदे के चार रंगो से ही समाज को रंगीन करने में मशगूल हैं... ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र...इन रंगो को मिलाने की जहमत ऐसे लोग कतई नहीं उठाना चाहते जिनके पास पुराने चश्मे अभी भी मौजूद हैं.
आज ज़रूरत है पुराने चश्मों को उतार कर दूर फेंक देने की...ज्यादा दिन तक पुराने चश्मे लगाने से आँखे भी खराब हो जाती है..पता है न आपको!!!
Wednesday, December 5, 2007
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