Saturday, July 12, 2008

A, B और C ग्रेड क्रिकेट

वन डे क्रिकेट के भविष्य पर एक प्रश्नवाचक चिह्न लग गया है. क्रिकेटीय गलियारों में इस बात की चर्चा जोरों पर है की अब तक क्रिकेट के लघु संस्करण कहे जाने वाले इस स्वरुप में ओवरों की संख्या घटाकर 40 कर दिया जाय. लोगों को अचानक एकदिवसीय क्रिकेट बड़ा और झेलाऊं लगने लगा है. ज्यादातर लोगों ने इस बात की हामी भर दी है की अगर क्रिकेट के इस फॉर्म को जिन्दा रखना है तो इसके फोर्मेट में बदलाव किया जाना बहुत ज़रूरी है. मगर ध्यान देने वाली बात ये है जो भी लोग ओवर्स को कम करने की हिमायती कर रहे हैं उनमे से ज्यादातर का क्रिकेट से कोई लेना-देना नहीं है. उनको सिर्फ़ मजा से मतलब है. बाकी इससे क्रिकेट का सत्यानाश हो इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है.
ट्वेंटी -ट्वेंटी में मज़ा, भरपूर पैसा के बावजूद क्रिकेट खिलाड़ियों ने तो अभी तक इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है. यहीं नहीं कंगारू टीम के कप्तान रिक्की पोंटिंग ने तो कई बार अपनी भड़ास ट्वेंटी-ट्वेंटी पर निकली है. सचिन तेंदुलकर ने भले ही आईपीएल में शिरकत करने के लिए भरी भरकम पैसा लिया हो लेकिन बात जब क्रिकेट के किसी एक संस्करण को चुनने की आती है तो वो हमेशा टेस्ट क्रिकेट के लिए हामी भरते है. अगर भारत के पिछले कुछ मैचों को देखा जाए तो उससे यही लगता है कि सचिन ने तो अब ट्वेंटी-ट्वेंटी के अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में न खेलने का फ़ैसला लगभग ले ही लिया है.
जहाँ तक ओवेर्स को कम करने की बात है तो उससे मुझे नहीं लगता की ऐसा करके भी ICC दर्शकों की इच्छाओं की पूर्ति करने में कामयाब हो पायेगी. बात वहीँ की वहीँ रह जाएगी चाहे मैच चालीस ओवेर्स का हो या पचास ओवेर्स का क्यूंकि खासतौर से जिन लोगों को क्रिकेट के इस दनादन स्वरुप (20-20) ने दीवाना बनाया है, उन्हें न तो क्रिकेट की बुनियादी समझ है न ही उससे कोई सरोकार है. उनको मतलब है तो बस लगने वाले चौकों और छक्कों से. जाहिर सी बात है ये चौके छक्के किसी को भी अपनी रोमांच की गिरफ्त में लेने के लिए काफी हैं. कुछ लोगों की दलील ये है की जब लोग देखना ही नहीं चाहते तो आख़िर उन्हें दिन भर क्यूँ दिखाया जाय. ये बात कुछ हद तक जायज हो सकता है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है की किसी व्यक्ति या समुदाय की पसंद नापसंद की खातिर किसी खेल के बुनियादी ढांचे में इतना बड़ा बदलाव बदलाव करना कहाँ तक जायज है? अगर वाकई लोगों के पसंद और नापसंद का इतना ही ख्याल रखा जाता है तो मेरे समझ से नब्बे फीसदी से भी अधिक लोग इस बात के लिए तैयार हो जायेंगे की टेस्ट क्रिकेट को बंद कर दिया जाय. क्योंकि एकदिवसीय क्रिकेट की दशा तो फ़िर भी ठीक है, लेकिन टेस्ट मैच के लिए दर्शक जुटाने में आयोजकों को पसीने छूट जाते हैं. लेकिन 1878 से चल रहे इस संस्करण के कायदे-कानून को लेकर किसी ने अब तक बड़ी मुहीम छेड़ने की कवायद नहीं की. दिन की संख्या अब भी पाँच है. इसको कम करने के नाम पर कभी-कभार हल्की खुसुर-फुसुर के अलावा कुछ खास नहीं किया गया. आख़िर क्यूँ? वजह बिल्कुल साफ़ है की लोगों ने क्रिकेट के इस स्वरुप को स्वीकार कर लिया है. इसलिए इसमे लोगों को बदलाव की न तो गुंजाईश लगती है न ही कोई बहुत बड़ी ज़रूरत महसूस होती है.
एक और बात बहुत ही ज़रूरी है की किसी भी खेल की रूपरेखा उस खेल से जुड़े खिलाड़ियों को करना चाहिए या इसका फ़ैसला उन लोगों पर छोड़ देना चाहिए जिनके लिए खेल खेल नहीं बल्कि मनोरंजन का एक जरिया भर है. या इसका फ़ैसला सिर्फ़ बाज़ार पर छोड़ देना चाहिए जो हर चीज को अपनी बनाई पटरी पर चलाना चाहता है चाहे वो खेल हो, सोच हो, या संवेदनाएं. अगर ख़ुद खिलाडी सामने आकर कुछ आवाज़ उठाते तो बात कुछ और थी. उसके कुछ मायने भी होते. लेकिन सिर्फ़ देख्नने वालों के लिए खेल को सिर्फ़ मनोरंजन की चासनी में डुबोकर परोसना कहाँ तक तर्कसंगत है. और हां अगर मान लिया जाय की इस बदलाव से वन डे क्रिकेट के वजूद पर कोई संकट नहीं आएगा तो इसकी गारंटी क्या है? क्या ये सम्भव नहीं है की अगले कुछ दिनों/ महीनों में लोगों को इसका स्वाद फ़िर से फीका लगने लगेगा. फ़िर क्या होगा? क्या फ़िर ICC ओवेरों में कटौती करेगा? सवाल कुछ पेचीदा है, लेकिन इस पर मंथन की भी ज़रूरत है. क्यूंकि तब फ़िर इस बात पर सोचने की ज़रूरत होगी की खेल को खेल ही रहने दिया जाय या फ़िर इसे बाज़ार के मजबूत खूंटे से बाँध दिया जाय. बाज़ार तब तक और तगड़ा हो जाएगा और ये भी सम्भव है कि उसे काबू में करने के लिए क्रिकेट की ही बलि चढाना पड़े. इस लिए आज ज़रूरत इस बात की है पहले से ही बाज़ार के घुसपैठ की सीमारेखा तय कर दी जाय. या फ़िर क्रिकेट में भी फिल्मों की तरह ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर दिया जाय A, B और C ग्रेड क्रिकेट. वैसे भी खिलाड़ियों को पहले से ही ग्रेडिंग की आदत पड़ ही चुकी है.