Monday, July 28, 2008

बारिश का एहसास घुटने से ऊपर तक


मुंबई की बारिश के बारे में तो मैंने बहुत सुना था लेकिन आज मैंने महसूस भी कर लिया, घुटने से ऊपर तक। इससे ज्यादा पानी में चलकर मैं स्टेशन पंहुचा। बहुत चैलेंजिंग लगा। मजा भी क्रिकेट से कम नहीं आया। इसलिए सोचा की क्यूँ न अपने इस अनुभव को मैं लिखूं...

फिलहाल मुबई में ही रह रहा हूँ, एक अच्छे न्यूज़ चैनल को कुछ हफ्ते पहले ही ज्वाइन किया है. ज्वाइन करने के बाद अभी अपनी बुआ के यहाँ ही रहे रहा हूँ. वैसे तो ये मेरी नहीं बल्कि मेरे बाबूजी की बुआ हैं लेकिन मुझे कभी कोई फर्क लगा ही नही. रात को सोते वक्त ये सोच कर सोता हूँ की सुबह जल्दी जग जाऊँगा और बुआ की कुछ मदद कर दूंगा. बुआ लगभग बुढापे की और बढ़ चलीं हैं, अगर हमे खाने को ४ रोटियां मिल जाती हैं तो वो भी बहुत बड़ी बात है. ये सुनने में बहुत ही अजीब लगता है की कुछ लोग जो बुआ के यहाँ एक अरसा गुजर कर जाते हैं बाद में बुआ की बुराई भी करते है. पीठ पीछे . क्यूंकि सामने तो किसी की भी हिम्मत नहीं होगी. आख़िर जो कुछ भी बुआ से मिलता है वो प्लस में ही होता है. लेकिन लोगों की फितरत होती है. बहरहाल कल रात को भी यही सोचकर बिस्तर पर गया की सुबह जल्दी जागना है. लेकिन बकर में २ घंटे निकल गए. रात को ठंढ लगने से रुक-रुक कर नीद आती रही. सुबह जब जगा तो ग्यारह बज रहे थे. बहुत आत्मग्लानि हुई. फूफाजी ऑफिस जा चुके थे. मैंने बिस्तर मोड़ कर रखा, फ़िर खिड़की से बाहर झांकते ही मेरा मन हिलोरे मारने लगा. पता नहीं बारिश होते देखकर इतनी खुशी क्यों होती है. बारिश से जुडी बचपन की कई यादें बाइस्कोप की रील की तरह आंखों के सामने की तरह गुजर जाती है. सब कुछ हरा भरा सा लगने लगता है. बहरहाल ऑफिस तो जाना ही था चाहे बारिश हो या तूफ़ान. बारिश को झांकते निहारते दो घंटे यूँ ही निकल गए. ये जानते हुए की बारिश में बाहर जाना कितना कष्टप्रद होगा मैं खुश हो रहा था, एक बजे मैं घर से निकल गया, रोज इसी वक्त निकलना पड़ता है. अजय भइया का छाता लिया और आ गया नीचे. रोड पर गया तो बारिश झमाझम. छाते के वश की बात नहीं थी. वैसे ऑटो जल्दी ही मिल गया, अन्यथा कई बार इस बारिश के आगे वो भी हथियार डाल देते हैं. मैंने सोचा चलो अब तो टाइम से ऑफिस पहुच ही जाऊंगा. हालाँकि बारिश की बौछार से मैं ऑटोरिक्शा के अन्दर भी नहीं बच पाया, किनारे से भीग ही गया था. रोड पर हर तरफ़ पानी ही पानी था. इस में भी दूसरे गाडी वालों को भी खुमारी छाई हुई थी. किनारे से गुजरते वक्त वो भी पानी बरसाने से बाज नहीं आते थे..छर्र से बड़ी बड़ी बूंदे शरीर पर. आधा रास्ता तो किसी तरह कट गया. मुझे भी लगा की आधी बाजी तो अपनी हो गई, मुंबई के ध्रुवसत्य जाम में भी नहीं फंसा. लेकिन आगे का नजारा देखकर तो मैं कांप ही गया. सड़क पर लोग घुटने तक पानी में जा रहे थे. ऑटो वाले ने कुछ दूर तक साहस दिखाया लेकिन फ़िर उसने भी हथियार डाल दिया. हलाँकि मैं उससे उसी पानी में जाने को कहता रहा, सड़क पर पानी देखकर तो ये ही लग रहा था की इसमे जाना लगभग नामुमकिन है. ऑटोवाले ने ये कहकर पीछा छुडाया की अब तो स्टेशन नजदीक ही है. मुझे पता था की ये झूठ बोल रहा है क्यूँकी वहां से अब भी स्टेशन करीब आधे किलोमीटर से जयादा दूर था. लेकिन मैंने ग्यारह रुपये निकालकर उसे दिया और उसे जाने दिया. अब मैंने छाता खोला, पैंट ऊपर चढाया और चल दिया. शर्म इसलिए नहीं आ रही क्योंकि लगभग सभी लोग पैदल ही जा रहे थे. गाडी वालों की तो बुरी हालत थी. मोटरसाईकिल वाले तो ठेल कर ले जा रहे थे. शुरू में तो पानी एक फ़ुट तक रहा होगा, लेकिन आगे जाने पर तो हद ही हो गयी. पानी घुटने भर से जयादा था. मन ने कहा की भाई घर लौट जाओ. लेकिन मैं ऑफिस चाहता थ. मैंने पैंट थोड़ा और ऊपर किया और चल पड़ा. मेरे पास छाता होने के बावजूद मैं आधे से ज्यादा भीग गया. मैं चलता रहा इसी बीच जो पैंट मैंने मोडा था वो खुल के पानी में हो गया, पानी के हिलोरों से वो बिल्कुल पानी में डूब गया. अब फ़िर से मैंने सोचा की ऑफिस में सर को फ़ोन करके बोल दूँ की आज ऑफिस नहीं आऊंगा. ये सोच रहा था और चला जा रहा था. कुछ लोग तो जांघ तक पानी में थे. मैंने तय किया कुछ भी हो ऑफिस तो जा के रहूँगा. कुछ देर तक तो भीगने की वजह से मन ख़राब हो रहा था. लेकिन बाद में मुझे आनंद आने लगा. मुझे इसकी चिंता भी नहीं रही की ऑफिस कितनी देर से पहुचुंगा. मैं आराम से चल रहा था. मेरे कपड़े पूरी तरह भीग गए थे. मुझे इस बात का भी पूरी तरह एहसास हो गया की छब्बीस जुलाई का क्या मंजर रहा होगा. अगर किसीने मुबई की बारिश को झेला नहीं है तो वो इसे नहीं समझ नहीं सकता. मैं जब गाँव में रहता था तो भी इतने ज्यादा पानी में चलकर इतनी दूर नहीं गया. कुछ लोग तो इतने पानी में गंगाजी में नहाने से कतराते हैं. किसी तरह स्टेशन पहुँचा. पैंट भीगकर भारी हो गया था इसलिए चलने में भी मुश्किल हो रहा था. किसी तरह स्टेशन पहुँचा, कूपन वैलिडेट किया और जाकर चर्च गेट की गाडी में बैठ गया. देर की फिक्र बिल्कुल नहीं हो रही थी. पैर बुरी तरह दर्द कर रहे थे. बारिश की वजह से गाडी भी रुक रुक कर चल रही थी. जब ऑफिस पहुंचा तो ३ बज रहे थे, किसी ने पूछा नहीं की देर क्यों हुई, उस दिन मुझे अकेले ही मोर्चा संभालना था. मैं जाकर अपने काम में जुट गया भीगे कपडों में ही..रात तक कपड़े तो सूख गए. लेकिन यादें बारिश की यादें कभी नहीं सूखेंगी. भीग जाने और थक जाने के बावजूद मजा आ गया था.

No comments: