- अभिषेक सत्य व्रतम्
"बस अब त आठे रन चाहत बा, दू गो चौका मार दिहन स त जीत जाई भारत..” भारत- इंग्लैंड के छठवें मुक़ाबले के अन्तिम क्षणों में दादी भी सबके साथ रेडियो की कमेंट्री सुनने में मग्न थीं। मैंने खुद को चिकोटी काटकर ये जानने की कोशिश भी कि कहीं मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा। दिल्ली आने से पहले जब भी मैं क्रिकेट मैच देखने बैठता तो जीवन के 74 बसंत देख चुकीं दादी कुछ वक्त तो जैसे तैसे झेल लेतीं लेकिन कुछ देर बाद ही उन्हें कोफ्त होने लगती और वो बोल पड़तीं “ का दिनवा भर मैच देखत रहेले रे..”। पिछले तीन सालों में ये पहला मौका था जब मैं रक्षाबंधन पर घर पे था। और बीते सालों में जो सबसे बड़ा बदलाव देखने को मिला वो क्रिकेट को लेकर घर के लोगों के नजरिए में आया परिवर्तन था।
घर पर सब कुछ लगभग वैसा ही था जैसा कि तीन साल पहले। लेकिन क्रिकेट की दीवानगी को लेकर जिस तरह के बदलाव देखने को मिले, यकीन मानिए भरोसा करना मुश्किल हो रहा था कि ये वही घर है जहां मेरी क्रिकेट की दीवानगी किसी को भी फूटी आंख नहीं सुहाती थी। लेकिन अबकी बार तो पूरा नजारा ही जुदा था।
मुझे अच्छी तरह याद है कि क्रिकेट मैच देखने को लेकर अक्सर मुझे लोगों के ताने सुनने को मिलते रहते थे। विश्वास ही नहीं हो रहा था की क्या ये वही बाबूजी हैं जिन्होंने एक बार क्रिकेट को लेकर मुझे कई थप्पड़ रसीद कर दिए थे। मेरा कसूर सिर्फ इतना था कि एक दोस्त के घर क्रिकेट देखने में कुछ देर हो गयी थी। बस फिर क्या था...।
एक बात और ताज्जुब करने वाली थी की मम्मी को भी अब क्रिकेट से दुराव नहीं रह गया है। पहले घर पे जब मैं कोई क्रिकेट मैच देखता था तो मम्मी चुपके से कह दिया करती थी " बचवा कवनो दूसर चैनल लगा दे " और मेरे ना मानने पर मम्मी किसी दूसरे काम में लग जाया करती थीं। पर इस बार तो सब कुछ जैसे उलट ही गया था, मम्मी और क्रिकेट, क्या बात है। यहाँ तक की मेरी बहने जो मेरे क्रिकेट देखने पे नाक-भौं सिकोड़ा करती थीं, क्रिकेट में खासी दिलचस्पी लेने लगी थीं। धोनी और युवराज सिंह में कौन अच्छा खेलता है ये भी उन्हें पता है। और तो और १० ओवर में ४६ रन कम होते हैं या ज्यादा इसका अंदाजा भी उन्हें अच्छी तरह हो चुका है।
और लोगों की बात तो छोड़ दीजिए...बाबूजी भी क्रिकेट के दीवाने हो गए हैं। बाबूजी का क्रिकेट के प्रति इतना मोह किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं था। ऐसा नहीं है कि इस मैच से पहले मैंने बाबूजी के साथ बैठकर कोई मैच नहीं देखा हो लेकिन उस वक़्त जूनून क्रिकेट को लेकर नहीं था वो तो कुछ और ही था जिसे शब्दों में बाँध पाना मुझे मुश्किल लग रहा है। मुझे अच्छी तरह याद है की १९९९ के विश्व कप में भारत- पाकिस्तान का मैच चल रहा था और बाबूजी अपने एक मित्र के साथ टी वी से चिपके हुये थे। दोनो लोगों को क्रिकेट की जानकारी रत्ती भर नहीं थी, लिहाजा मैच का आंखोदेखा हाल सुनाने की जिम्मेदारी मुझ पर आन पड़ी थी। पहली बार जाना था कि एक एक गेंद के साथ बढ़ता रोमांच उसे भी अपनी चपेट में ले सकता है जिसे इस खेल की कोई जानकारी ही न हो। बहरहाल ये मैच भारत की झोली में आ गया। इसके बाद तो दोनों का उत्साह देखते ही बन रहा था। छोटे से कस्बे में जहां शाम ढ़लते- ढ़लते दुकानें बंद हो जाया करती थीं। रात 11 बजे हलवाई की दुकान खुलवाकर मिठाई लाई गई। लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि इस वाकए के बाद क्रिकेट को लेकर मुझ पर लगी बंदिशें कम हो गई हों। तब भी मुझे खेल पेज पढ़ते देख बाबूजी घूरते जैसे मैं कोई गुनाह कर रहा हूं।
लेकिन महज 3 सालों में सब कुछ बदल गया था। माहौल इतना बदला हुआ था कि मैं हतप्रभ रह गया था। आलम ये है कि अब बाबूजी भी कमेंट्री सुनने के लिए रे़डियो से चिपके रहते हैं। यही नहीं बीच बीच में वो क्रिकेट पर अपडेट लेना नहीं भूलते। कुल मिलाकर देश में क्रिकेट को लेकर कायम जूनून लगातार बढ़ता ही जा रहा है इसका अंदाजा लगाना अब मुश्किल नहीं है। ये सब कुछ देखकर हाल ही में लांच हुए एक चैनल की पंचलाइन अनायास ही मेरे कानों में गूंज रही थी " ये देश है हम दीवानों का, हमे हक है एक ऐसे चैनल का जो इस जूनून को दिखाए"।